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८४ अतुला तुला
तेषां नाम्ना मंदिरं विद्यमानं, विद्वद्वर्या अत्र सर्वे प्रभूताः ॥ १॥
अधिकार है' और जो नाद आज सर्वत्र 'तिलक - विद्यापीठ' बना है । आज सभी
जिस महामनीषि ने यह नारा दिया था कि 'स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध गूंज रहा है, उनकी नाम-स्मृति में यह पंडित यहां उपस्थित हैं । विलोक्य सर्वान् विदुषः प्रमोदे, विराजमाना गुरवो ममातः । इतो विराजन्ति मुमुक्षवोऽमी, साहित्य पाण्डित्य कलाप्रपूर्णाः
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मैं विद्वानों को देखकर परम प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूं। एक ओर मेरे गुरुदेव आचार्य तुलसी विराजमान हैं और इधर साहित्य के विद्वान् और कला में निपुण ये मुमुक्षु बैठे हुए हैं ।
ये ये विचारा मनसोद्भवन्ति, ज्ञातास्तथा ज्ञाततमा लसन्ति । आविष्करोमि प्रमनाश्च तॉस्तान्, ज्ञेयः ससोमः समयो ममास्ति ॥ ३॥
जो विचार मन में उत्पन्न हो रहे हैं, वे ज्ञात और सुज्ञात हैं । फिर भी मैं प्रसन्न मन से उन्हें अभिव्यक्त करता हूं । मेरे बोलने का समय ससीम है, यह सब जान लें ।
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नाहं क्वचित् काश्चन वेद्मि विज्ञान, न तेऽपि जानन्तितमां च मां च ।
पूर्वोऽयमेवास्ति
समागमोऽत्र,
परं प्रमोदोस्ति महान् समन्तात् ॥४॥
यहां उपस्थित किसी विद्वान् को मैं नहीं जानता और न कोई विद्वान् मुझे पहचानता है । यह हमारा पहला ही समागम है, फिर भी चारों ओर हर्ष का वातावरण है ।
येषां विचाराः प्रकृति प्रसन्नाः, सद्भावना स्फूर्तिमती विभाति ।
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