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४ : गंगानहर रंगत्तरंगा किमु नाम गंगा, नो नो तदुत्था सलिलप्रणाली। भगीरथः कोऽपि किमत्र जातो,
न ज्ञायते तेऽद्य युगे कियन्तः ॥१॥ उत्ताल तरंगों वाली गंगानहर को देखकर मन में यह प्रश्न उभरा कि क्या यह गंगा नदी है ? नहीं, यह तो उससे निकली हुई नहर है । फिर प्रश्न हुआ कि क्या कोई भगीरथ उत्पन्न हुआ है जो इसको ले आया है ? न जाने आज इस युग में कितने भगीरथ विद्यमान हैं।
कल्लोलमालाकुलिताभिरद्भिः, द्वारप्रदेशे पतिताभिरुच्चैः । संघर्षशीलाभिगता सवस्त्रा ,
विचित्रवेशा किल नर्तकीव ॥२॥ वह नहर अमिमाला से आकुलित तथा ऊपर से दरवाजे तक गिरते हुए पानी के साथ जूझ रही थी। वह आगे फेनिल वस्त्र पहन कर बढती हुई नहर विचित्र वेशवाली नर्तकी जैसी लग रही थी।
घोषोऽतुलस्तद् विपुलं शरीरं, प्रकंपितं सूचयतीति सत्यम् । अस्मिन् युगे जल्पति यः स एव,
मुख्योऽम्बुनापि प्रतिबुद्धमेतत् ॥३॥ उसका अतुल घोष और प्रकंपित विपुल शरीर इस सत्य की सूचना दे रहा है कि इस युग में जो बोलता है वही मुख्य होता है। पानी ने भी इस रहस्य को समझ लिया था।
निम्नं गतं वारि करोत्यनिम्नं, पृष्ठागतं वार्यऽपरं स्ववेगात् । ऊर्ध्वंदमं याति पुनश्च निम्नमुद्धारयेत् कः खलु निम्नवृत्तिम् ॥४॥
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