________________
अतुला तुला .
मैंने ताजमहल के भीतर सुन्दर भित्ति की धवलिमा देखी। पर वास्तव में वह धवलिमा नहीं थी । वह तो स्वयं सम्राट् (शाहजहां ) द्वारा कृत अपनी विलासितापूर्ण बुद्धि का अट्टहास मात्र था ।
सलाघवे
८०
पाणिघपाणिभङ्ग,
निःश्वासवातेन कलिन्दकन्या । श्यामा बभूवेति तदूर्ध्वभागे, गतेन नीरं दधता व्यलोकि ||३||
कुशल शिल्पियों के हाथों के काटे जाने पर उनकी निःश्वास वायु से यमुना का जल श्यामल हो गया । ताजमहल के उर्ध्वभाग में जाने पर यमुना के जल को अपनी आंखों में धारण करते हुए मैंने यह देखा ।
( आगरा - वि० सं० २००६ चैत्र कृ० १२-१३ )
Jain Education International
३ : विचक्षु
श्रद्धां पुरस्कृत्य गति करोमि, बुद्धि पुरस्कृत्य विचारयामि । आत्मानुभूत्या विदधामि साक्षात्, त्रिचक्षुरेवं भगवन् ! भवेयम् ॥
श्रद्धा को पुरस्कृत कर गति करता रहूं, बुद्धि को पुरस्कृत कर विचार करता हूं और आत्मानुभूति से साक्षात्कार करता रहूं- प्रभो ! इस प्रकार मैं विचक्षु हो जाऊं ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org