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हैं, हम बीमार पड़ जाते हैं। ऐसा ही नहीं है। बिना बाहरी जर्स के भी हम बीमार हो जाते हैं। हमारे भीतर भी बीमारी के अनेक निमित्त हैं। होमियोपैथिक के प्रवर्तक डॉ. हनीमेन ने कहा था-'बीमारी की जड़ में कीटाणु नहीं, किन्तु बीमारी की जड़ हमारे बहुत गहरे में है।' यथार्थ में बीमारी की जड़ें लेश्याओं में हैं। जब तक लेश्या शुद्ध रहेगी, आदमी कभी बीमार नहीं होगा। जब-जब लेश्या विकृत होती है, आदमी बीमार होना शुरू हो जाता है। इस शरीर में तो उस बीमारी की अभिव्यक्ति मात्र होती है। बाहरी कीटाणु मिलते हैं, तो वे भी बीमारी के निमित्त बन जाते हैं। बाहरी कीटाणु न मिलें, तो भी बीमारी व्यक्त हो जाती है। ___ साधना में भावना का बहुत महत्त्व है। बुरी आदतों की जड़ों को उखाड़ डालने का यह एक सशक्त माध्यम है। इसके द्वारा पुरानी आदतें मिटती हैं और नई आदतों का निर्माण होता है। भावना दोनों काम करती है-ध्वंस भी करती है और निर्माण भी करती है। बुरी आदतों के बदलने और नई आदतों के निर्माण का बिन्दु है-लेश्या-तंत्र, भाव-तंत्र।
ARTHI वहां रूपान्तरण घटित होता है। क्योंकि लेश्या के पास तैजस् की शक्ति है, विद्युत् की शक्ति है। विद्युत् की शक्ति के बिना इतना बड़ा परिवर्तन नहीं हो सकता। आज का सारा वैज्ञानिक-चमत्कार विद्युत् पर आधृत है। यदि आज के युग में विद्युत् समाप्त हो जाए तो सारा विज्ञान ही धराशायी हो जाएगा। विज्ञान का अपना कोई स्वतंत्र जीवन नहीं है। तैजस्-शरीर में जो क्षमता है, जो विद्युत् है, उसके द्वारा ही जीवन-तंत्र का सारा परिवर्तन घटित होता है। लेश्या के पास विद्युत् की यह बहुत बड़ी शक्ति है। तैजस् शरीर और लेश्या की चेतना-ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। दोनों सहकारी हैं। दोनों साथ मिलकर काम करते हैं। इसलिए परिवर्तन घटित करने के लिए लेश्या पर ध्यान देना होता है। उसमें सम्मोहन का भी बहुत बड़ा हाथ है। इसका कारण स्पष्ट है कि हम जिस चेतना के स्तर पर प्रभावित होते हैं, वह चेतना है लेश्या। यहीं हम प्रभावित होते हैं-दूसरों के द्वारा, बाहरी स्रावों से और भीतरी स्रावों से। यह प्रभावित होने का जो विद्युत् चुम्बकीय-क्षेत्र हमारे शरीर में है, वह है लेश्या। सम्मोहन का प्रभाव यहीं होता है। इसीलिए भावना का
वृत्तियों के रूपान्तरण की प्रक्रिया ८५
है, विद्युत सकता। आज का विद्युत् समाप्त
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