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होने लग जाता है। सचमुच घटित हो जाता है।'
डॉक्टरों ने एक प्रयोग किया। एक स्वस्थ आदमी था। एक डॉक्टर आया। उसकी नब्ज देखकर कहा-'अरे! तुम्हें तो ज्वर हो गया है।' वह घर के बाहर निकला। दूसरा डॉक्टर रास्ते में मिला। उसने कहा 'यह क्या, लगता है, तुम्हें ज्वर हो गया है। आगे चला। एक तीसरा डॉक्टर मिला। उसने कहा-'अरे भाई! तुम्हें ज्वर कब से हो गया है?' वह व्यक्ति घबरा गया। वह घर गया। अपने घरेलू डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर आया। उसने कहा-'बुखार हो गया है।' बुखार बढ़ता ही गया। वह १०४ डिग्री तक पहुंच गया। व्यक्ति घबरा गया। यह तो आत्म-संशन का प्रयोग था। प्रयोग का चक्का घूमा। नया डॉक्टर आया, उसने सारी परीक्षा कर कहा-'अरे! किसने कहा तुम्हें ज्वर है? तुम तो स्वस्थ हो। तुम्हारी नाड़ी स्वस्थ है। बुखार नहीं है। जिसने बखार बतलाया वह डॉक्टर पागल था। तुम चिंता मत करो। कोई ज्वर नहीं है। तुम ज्वर की बात को मन से निकाल दो।' कुछ घंटों बाद परीक्षण किया गया। बुखार नहीं था।
बुखार आ जाता है, बुखार चला जाता है, बिना बीमारी के। बिना घटना के क्रोध आ जाता है, क्रोध चला जाता है। स्थानांग सूत्र में क्रोध की उत्पत्ति के कई कारण बताए गए हैं। उनमें एक है-पर-हेतुक क्रोध और एक है-आत्म-हेतुक क्रोध। एक है-दूसरे के निमित्त से आने वाला क्रोध और एक है-अपने आप आने वाला क्रोध। मन में इस प्रकार का भाव निर्मित हुआ कि क्रोध फूट पड़ा, क्रोध उभर आया। कोई बाह्य कारण नहीं है। यह अपने ही निमित्त से आने वाला क्रोध है। इसी प्रकार अपने ही निमित्त से, बिना किसी बाहरी निमित्त के अभिमान भी आता है, कपट और भय भी आता है। घृणा भी आती है। अपने आप होने वाले भय से हम बहुत परिचित हैं। आप बैठा है। विचारों का प्रवाह चलता है। ऐसे विचार अचानक उभरते हैं कि व्यक्ति भयंकर रूप से डरने लग जाता है। वह शारीरिक दृष्टि से प्रताड़ित जैसा हो जाता है। हमारे भीतरी जगत् में घटित होने वाली घटनाएं बड़ी विचित्र हैं। हम केवल बाहरी निमित्तों में ही नहीं होते। बाहर के जर्स आते ५४ आभामंडल
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