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न भावना के आधार पर व्यक्ति संसार समुद्र को तर जाता है। भावना के योग से बुरी आदतों से मुक्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
भारतीय साहित्य में आत्म-संशन का बहुत बड़ा महत्त्व रहा है। इसके प्रयोग होते रहे हैं। वैदिक साहित्य में इसका एक प्रसंग इस प्रकार है
मेरे मुंह में वाक् सदा स्फूर्त रहे। मेरी नसों में प्राण सदा प्रवाहित रहे। मेरी आंखों में देखने की शक्ति रहे। मेरे कानों में सुनने की शक्ति बनी रहे। इस प्रकार के आत्म-संशन के द्वारा प्राचीन ऋषि अपनी शक्तियों का विकास करते थे और अपनी शक्तियों को बनाए रखते थे, जीवित रखते थे। वे सौ वर्ष तक जीने में सफल हो जाते थे।
आदमी की अकालमृत्यु का एक कारण है-हीन-भावना। जब आदमी हीन-भावना से ग्रस्त होता है, तब वह अपनी सारी शक्तियों को खो बैठता है। आत्म-संशन बहुत सक्रिय तत्त्व है। अपनी शक्तियों को सूचित करना, जाग्रत करना और जीवित रखना-यह आत्म-संशन का एक प्रकार है। अपनी शक्तियों के प्रति मूर्छित हो जाना, उदासीन हो जाना, हीन-भावना से ग्रस्त हो जाना-यह भी आत्म-संशन का एक प्रकार है। दोनों का अपना-अपना प्रभाव होता है। __फ्रान्स देश के एक प्रोफेसर वालदी ने आत्म-संशन के कुछ प्रयोग किए। एक व्यक्ति से कहा-'तुम्हारे हाथ में एक चम्मच दे रहा हूं। वह बहुत गर्म है। उसे कैसे छूओगे? छूओगे तो हाथ जल जायेंगे। यह चम्मच लो।' उस व्यक्ति ने चम्मच हाथ में लिया और वह जल गया। हाथ में फफोले हो गए। चम्मच में कुछ नहीं था। वह कोरा चम्मच था, ठंडा था। किन्तु उस चम्मच से हाथ जल उठा। फफोले हो गए। यह कैसे हुआ? यह सारा आत्म-संशन आत्म-सूचन या आत्म-सम्मोहन के द्वारा घटित हुआ। व्यक्ति का एक स्तर है-चेतना का, लेश्या का या भावना का। जब उस स्तर तक कोई बात चली जाती है, तैजस्-शरीर-शारीरिक विद्युत् तक कोई बात चली जाती है, वहां वह घटित होने लगता है, जो चाहा जाता है। पदार्थ ही प्रभावित नहीं करता, किन्तु पदार्थ के साथ जाने वाली चेतना भी प्रभावित करती है। चेतना के स्तर पर हम जिस बात को पकड़ लेते हैं, हमारे जीवन में वही घटित
वृत्तियों के रूपान्तरण की प्रक्रिया ८३
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