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है। पांचवां लक्षण है कि धार्मिक व्यक्ति जनप्रिय होता है। यह हो ही, ऐसा जरूरी नहीं है। चार लक्षण होने जरूरी हैं। - लेश्या के परिवर्तन के द्वारा ही जीवन में धर्म सिद्ध हो सकता है। जब कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं बदल जाती हैं, और तेजो, पद्म और शुक्ल-ये तीन लेश्याएं अवतरित होती हैं, तब परिवर्तन घटित होता है। लेश्याओं के बदले बिना जीवन नहीं बदल सकता। लेश्याएं कोरी जानने की नहीं हैं। यह कोरा तत्त्वज्ञान नहीं है। ये बदलने के सूत्र हैं। ये रटने के सूत्र नहीं, अभ्यास के सूत्र हैं।
___ मार्क्स ने ठीक ही कहा था-दर्शन कोरा ज्ञान देता है, जीवन को परिवर्तित नहीं करता, रूपान्तरित नहीं करता। आज धर्म का रूप भी लगभग ऐसा ही हो गया है कि व्यक्ति जीवनभर धर्म का आचरण करता है और मौत के समय उसका लेखा-जोखा किया जाए तो परिणाम शून्य आता है। जीवन में कोई परिवर्तन घटित नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में जो विचार बनते हैं, वे अस्वाभाविक नहीं लगते कि धर्म केवल प्रियता की अनुभूति देता है, कोरा ज्ञान देता है, व्यक्ति को बदलता नहीं है। किन्तु यह सचाई धर्म के आवरण की सचाई है, धर्म की सचाई नहीं है। ये केवल धर्म की चमड़ी की सचाई है, धर्म की आत्मा की सचाई नहीं है। धर्म की सचाई यह है कि जो धार्मिक होगा वह निश्चित ही बदलेगा। यह हो नहीं सकता कि धार्मिक हो, धर्म का आचरण करता हो और पहले से न बदला हो। धार्मिक होने का अर्थ ही है कि परिवर्तन की यात्रा पर चल पड़ना, रूपान्तरण की ओर प्रस्थान कर देना। यहां से तेजो-लेश्या की यात्रा शुरू हो जाती है, अध्यात्म की यात्रा शुरू हो जाती है। जब तेजो-लेश्या की यात्रा प्रारम्भ होती है तब अध्यात्म के स्पंदन जाग जाते हैं। जब अध्यात्म के स्पंदन जागते हैं, तब परिवर्तन अपने आप शुरू हो जाता है। इस प्रकार के सुखद स्पंदन जागते हैं कि जिन स्पंदनों का जीवन में पहले कभी अनुभव नहीं किया था। बहुत बड़ी भ्रान्ति टूट जाती है। व्यक्ति ने मान रखा था कि सुख पदार्थ से ही उपलब्ध होता है। किन्तु तेजो-लेश्या के स्पंदन जैसे ही जागते हैं, जैसे ही दर्शन-केन्द्र पर ध्यान होता है और वे चमकीले स्पंदन जागते
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