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आता है। बुरी आदतें, बुरे विचार, भय, घृणा, ईर्ष्या, चिंता, व्यग्रता और मानसिक तनाव-ये सारे अधर्म के जीवन में उपलब्ध होते हैं आदमी इन्हें छोड़ना चाहता है। मन की शांति, तनावमुक्ति, प्रेम, मित्रता सबके साथ सौजन्यपूर्ण व्यवहार, उदारता और सौहार्द-इन सबको उपलब्ध करना चाहता है। इसलिए वह धर्म की शरण में आता है।
धर्म की शरण मिले और आदमी बदले नहीं, यहां एक प्रश्न-चिह्न हमारे समक्ष आता है। धर्म की शरण मिले और कुछ भी न बदले तो मानना चाहिए कि कहीं कोई त्रुटि अवश्य है। या तो धर्म उपलब्ध नहीं हुआ या व्यक्ति धर्म को उपलब्ध नहीं हुआ। कहीं न कहीं कोई त्रुटि अवश्य है। इस प्रश्न पर हम विचार करें। यही वह प्रश्न है जहां व्यक्ति बदल सकता है। जिसके जीवन में धर्म सिद्ध हो जाता है, उसमें धर्म के लक्षण प्रकट होने लग जाते हैं, उसमें तेजो-लेश्या, पद्म-लेश्या और शुक्ल-लेश्या के लक्षण प्रकट होने लग जाते हैं। धर्म की यात्रा शुरू होती है और लेश्याओं के भाव, विचार और व्यवहार हमारे जीवन में मूर्त बनने लग जाते हैं
'औदार्यं दाक्षिण्यं पापजुगुप्सा च निर्मलो बोधः।
लिंगानि धर्मसिद्धे प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥' जिसके जीवन में धर्म सिद्ध होता है, उसमें ये लक्षण प्रकट होते हैं
तर्क शास्त्र का एक नियम है कि लिंग के द्वारा लिंगी को जाना जाता है। साधन के द्वारा साध्य को जाना जाता है। धुएं को देखकर व्यक्ति अग्नि का अनुमान करता है। वैसे ही उपर्युक्त लक्षणों को देखकर जान लिया जाता है कि अमुक आदमी में धर्म सिद्ध हो चुका है। जिस व्यक्ति में उदारता है, दाक्षिण्य है-हर बात को अनुकूलता से स्वीकार करता है, पापजुगुप्सा है-बुरी आदतों के प्रति घृणा है, दूसरों की बुरी आदतों के प्रति ही घृणा नहीं, अपनी बुरी आदतों के प्रति भी घृणा है। उसका ज्ञान इतना निर्मल होता है कि हर बात सत्यपूर्ण ही निकलती है, उसके मुंह से कभी झूठी बात नहीं निकलती। वह जो सोचता है, जो भाव करता है ज्ञान की प्रत्येक रश्मि, प्रत्येक धारा निर्मलता के साथ प्रवाहित होती है-ये लक्षण बताते हैं कि व्यक्ति में धर्म सिद्ध हो गया
वृत्तियों के रूपान्तरण की प्रक्रिया ७६
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