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है । बाहर आकर खाली होती है और फिर नीचे जाकर भरती है । यह चक्र चलता ही रहता है।
भीतर से जो परिस्राव आता है, उस स्राव को ग्रन्थियां बाहर लाती हैं और शरीर की ग्रन्थियां अपने माध्यम से बाहर की वस्तु को अन्दर ले जाती हैं। जब ग्रन्थियां शुद्ध होने लगती हैं, तब लेश्याएं शुद्ध होने लगती हैं। जब लेश्या शुद्ध होने लगती है, तब अध्यवसाय शुद्धं होने लगता है। जब अध्यवसाय शुद्ध होते हैं तब कषाय के तीव्र विपाक नहीं आ सकते। वे मन्द हो जाते हैं। उनका परिणाम मंद हो जाता है । मन्द विपाक कोई भी बुरी आदत का निर्माण नहीं कर सकता । यह है शोधन की प्रक्रिया । अध्यात्म के आचार्यों ने इस आत्म-शोधन की प्रक्रिया को इतने सुन्दर ढंग से प्ररूपित किया है कि उसे ठीक समझकर यदि हम उसका प्रयोग करें तो व्यक्तित्व के रूपान्तरण में कोई कठिनाई नहीं होगी।
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जो व्यक्तित्व का रूपान्तरण करता है (२) ७७
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