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जब गान्धारी ने दुर्योधन की तरफ देखा, तब दुर्योधन कटिवस्त्र पहने हुए था। शरीर का जितना भाग निर्वस्त्र था, वह गान्धारी की तैजस-शक्ति से वज्रमय बन गया और कटिभाग, जो सवस्त्र था, वह ज्यों का त्यों रह गया। पांडवों को रहस्य का पता लगा। दुर्योधन की कटि पर प्रहार हुआ और वह तत्काल धराशायी हो गया।
तैजस्-शरीर के विकास के साथ निकलने वाली रश्मियों के कारण, दर्शनशक्ति के कारण शरीर का कण-कण वज्रमय बन जाता है। जब निर्मल मन, निर्मल चेतना और तेजस् शरीर की विकसित शक्ति के साथ शरीर के कण-कण को देखा जाता है, तब शरीर का आवरण टूटता है और शरीर के सोये हुए चैतन्य केन्द्र जाग जाते हैं। उनकी मूर्छा टूट जाती है और शक्ति का वलय बन जाता है।
स्वभाव को बदलने के लिए, व्यक्तित्व को रूपान्तरित करने के लिए दो साधन हैं-ज्ञान और दर्शन, केवल जानना और केवल देखना। इनसे बड़ा कोई साधन नहीं। साधन वही होता है, जो उपादान होता है। मिट्टी के घड़े का साधन मिट्टी ही हो सकती है। यदि मिट्टी न हो तो मिट्टी का घड़ा नहीं बन सकता, चाहे कितना ही कुशल कुम्हार हो, चाक हो, और भी सारे उपकरण हों। उपादान चाहिए। उपादान के बिना कार्य निष्पन्न नहीं होता।
मूल उपादान है-जानना और देखना। आत्मा का मूल स्वभाव है-जानना और देखना। जब हम जाग जाते हैं, केवल देखने और जानने की शक्ति का उपायेग करने लग जाते हैं और जब हमारा चित्त या मन केवल देखने और जानने की शक्ति का सहारा लेकर ग्रन्थि-तंत्र को जानता है, देखता है तब ग्रन्थि-तंत्र शुद्ध होने लगता है। वह निवारण, मूर्छाशून्य और प्रतिरोध की शक्ति से शून्य होने लगता है। जब ग्रन्थि-तंत्र शुद्ध होता है, तब अपने आप लेश्या-तंत्र शुद्ध होने लगता है। क्योंकि लेश्या-तंत्र के पास जो कुछ जाता है, वह ग्रन्थि-तंत्र के माध्यम से ही जाता है।
चक्र नाम की भी सार्थकता है। चक्र इसलिए कि वह घूमता रहता है। अरह की माला है। यह नीचे कुएं में जाती है। पानी भरकर लाती र आभामंडल
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