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शुरू होती है । बालसूर्य जैसे लाल रंग से अध्यात्म की यात्रा प्रारंभ होती है । हमारी अध्यात्म यात्रा तेजोलेश्या से शुरू होती है। तेजोलेश्या का रंग है - बालसूर्य जैसा । यह यात्रा जब होती है तब सारी धाराएं बदल जाती हैं । कृष्ण-लेश्या में आवृत्ति ज्यादा, तरंगें छोटी । नील- लेश्या में तरंग की लंबाई बढ़ जाती है, आवृत्ति कम हो जाती है । कापोत- लेश्या में तरंग की लम्बाई और बढ़ जाती है तथा आवृत्ति कम हो जाती है । तेजोलेश्या में आते ही परिवर्तन शुरू हो जाता है । पद्म- लेश्या में और बदलता है। शुक्ल - लेश्या में पहुंचते ही आवृत्ति कम हो जाती है, केवल तरंग की लम्बाई मात्र रह जाती है। एक ही तरंग बन जाती है। इस लेश्या में व्यक्तित्व का पूरा रूपान्तरण हो जाता है।
व्यक्तित्व के रूपान्तरण की प्रक्रिया है- लेश्या का शोधन, लेश्या के शोधन की प्रक्रिया है - ग्रन्थि तंत्र का शोधन और ग्रन्थि - तंत्र के शोधन की प्रक्रिया है - प्रेक्षा ध्यान । यदि हम प्रेक्षा ध्यान के द्वारा समूचे शरीर को देखते हैं तो पूरा शरीर करण बन जाता है । वह एक दर्पण बन जाता है। निर्मल दर्पण । उसकी मलिनता समाप्त हो जाती है । उसका आवरण समाप्त हो जाता है। ज्ञान का आवरण और दर्शन का आवरण समाप्त हो जाता है । शक्ति का प्रतिरोध समाप्त हो जाता है। मोह या मूर्च्छा का वलय टूट जाता है। देखने की शक्ति तीव्र हो जाती है। जिस व्यक्ति की विद्युत् तीव्र हो गई, तैजस् तीव्र हो गई, उस व्यक्ति के देखने मात्र से शरीर वज्र - सा बन जाता है
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गान्धारी की घटना है । गान्धारी ने दुर्योधन को देखा। उसके देखने मात्र से दुर्योधन का शरीर वज्रमय बन गया । वह अभेद्य बन गया । उसे भेद पाना कठिन हो गया ।
कौरव-पांडव का युद्ध हुआ । दुर्योधन अजेय था । उसको मार पाना सरल नहीं था, क्योंकि उसका समूचा शरीर वज्रमय था । सबके सामने कठिन समस्या थी । भीम और अर्जुन जैसे वीर भी उसे मार डालने में असमर्थ थे। वज्र पर कोई प्रहार टिकता नहीं । आखिर रहस्यदाता वहां थे। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि यदि दुर्योधन को मारना है तो उसके कटिभाग पर प्रहार करो, क्योंकि वह भाग वज्रमय नहीं बन सका है।
जो व्यक्तित्व का रूपान्तरण करता है (२) ७५
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