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यह सारे तंत्र को संचालित करता है। मन, शरीर और वचन-तीनों इसके द्वारा संचालित हैं। जब प्रेक्षा-ध्यान के द्वारा चित्त निर्मल बनता है, करण बन जाता है, तब हमारी ग्रन्थियां भी निर्मल बनने लग जाती हैं।
योग-शास्त्र में कमल और चक्र-ये दो शब्द मिलते हैं। हमारे शरीर में ये कमल हैं-नाभि कमल, हृदय कमल आदि। ये चक्र हैं-मणिपूर-चक्र, अनाहत-चक्र आदि। जैन आचार्यों ने इन पर विशद प्रकाश डाला है। उन्होंने बताया कि शरीर का जो अवयव करण बनता है, शरीर में जो शुद्धि होती है, उसमें केवल कमल और चक्र-दो ही आकार नहीं बनते। स्वस्तिक, नंद्यावर्त, कलश आदि अनेक आकार बनते हैं। जब तक व्यक्ति जागृत नहीं होता, सम्यग्-दृष्टि नहीं होता, तब तक उसके सारे चैतन्य केन्द्र भद्दे आकार के होते हैं, गिरगिट के आकार के होते हैं। जब वे चैतन्य केन्द्र जागृत हो जाते हैं, व्यक्ति सम्यग्-दृष्टि हो जाता है, आंतरिक शुद्धि होती है तब ये सारे आकार बदल जाते हैं, पवित्र और सुन्दर आकार वाले हो जाते हैं।
नाभि के ऊपर के स्थान जब बदल जाते हैं, तब नाभि-केन्द्र का शोधन अपने आप होने लग जाता है। आदत को बदलने का सबसे बड़ा सूत्र है-ग्रन्थि-तंत्र का परिवर्तन, मन की यात्रा का परिवर्तन। मन की यात्रा नाभि, पेडू और नीचे तक न हो किन्तु हृदय, गला, नासाग्र, भृकुटि और सिर की ओर हो। मन की दिशा नीचे की ओर न हो, बुद्धि की दिशा नीचे की ओर न हो, किन्तु ऊर्ध्वगामी हो। ऊर्ध्वरमण का नाम ही है-विरमण और नीचे की ओर यात्रा का नाम है-रमण। उर्ध्वरमण से हमारी ग्रन्थियां शुद्ध होने लगती हैं, आदतों में अपने आप परिवर्तन होने लग जाता है। उनमें स्वभावतः रूपान्तरण शुरू हो जाता है, तब आदतों को पोषण देने वाला कोई नहीं रहता। कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या कापोत-लेश्या-ये तीनों लेश्याएं बदल जाती हैं। कृष्ण-लेश्या शुद्ध होते-होते नील-लेश्या बन जाती है। नील-लेश्या विशुद्ध होते-होते कापोत-लेश्या बन जाती है। कापोत-लेश्या जब शुद्ध होती है तब तेजो-लेश्या बन जाती है। हामरी समूची यात्रा तेजो-लेश्या से प्रारंभ होती है। रंग का मनोविज्ञान बताता है कि अध्यात्म की यात्रा लाल रंग से ७ आभामंडल
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