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________________ हमारी ग्रन्थियों में आते हैं और नई आदतों के लिए नई सामग्री दे जाते हैं।' इस वर्तुल से निकलने का रास्ता क्या है-यह एक प्रश्न है। प्रेक्षा-ध्यान के द्वारा इस वर्तुल से बाहर निकला जा सकता है। यही एक मात्र साधन है जो इस वर्तल को तोड़ सकता है। फिर प्रश्न होता है कि प्रेक्षाध्यान के द्वारा क्या होगा? प्रेक्षा-ध्यान के द्वारा हम मन की गति को बदल देते हैं। मन रमण करता है। रमण का अर्थ है--प्रियता या अप्रियता में जाना। या तो मन की प्रियता का भाव लेकर हमारे शरीर में एक लहर बनकर दौड़ता है या अप्रियता का भाव लेकर हमारे शरीर में एक लहर बनकर दौड़ता है। प्रियता का भाव राग है और अप्रियता का भाव द्वेष है। जब मन राग की या द्वेष की लहर के साथ दौड़ता है, तब नाना प्रकार की तरंगें उत्पन्न करता है। यह उसका रमण है। जब हम मन को प्रेक्षा करने में लगा देते हैं तब वह विरमण में बदल जाता है। वह सीधा चैतन्य के पास पहुंच जाता है। ___गौतम ने महावीर से पूछा- 'भन्ते! प्राणातिपात का विरमण, मृषावाद का विरमण, अदत्तादान का विरमण, मैथुन का विरमण, क्रोध, मान, माया और लोभ का विरमण इनमें कितने वर्ण, कितने रस, कितने गंध और कितने स्पर्श होते हैं?' भगवान महावीर ने कहा-'इनमें कोई वर्ण नहीं होता, कोई रस नहीं होता, कोई गंध नहीं होता और कोई स्पर्श नहीं होता। क्योंकि ये सब चैतन्य की रश्मियां हैं।' रमण है-पुद्गल और विरमण है-चैतन्य। रमण है रंगयुक्त और विरमण है रंगमुक्त। जब हम प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग करते हैं, राग और द्वेष-दोनों से छूटकर केवल जानने की दृष्टि से शरीर को देखते हैं, तब हम केवल जानते हैं, देखते हैं। प्रेक्षा-ध्यान में हम केवल जानें, देखें, कोई संवेदन न करें। प्रिय-अप्रिय की कोई प्रतिक्रिया न करें। केवल जानें, देखें। समताभाव, तटस्थभाव और द्रष्टा भाव को बनाए रखें। जब मन की यह स्थिति बनती है और रागद्वेष से शून्य मन से हम शरीर की प्रेक्षा करते हैं, तब हमारा समूचा शरीर करण बन जाता है-पारदर्शी, शुद्ध और पवित्र बन जाता है। हम ग्रन्थि-तंत्र को बदलने के लिए चैतन्य केन्द्रों की परीक्षा करते हैं। समूचे शरीर ७२ आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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