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जाता है। उसका सर्वथा विलय हो जाता है और वह वृत्ति बदल जाती है। उसके तीव्र विपाकों, तीव्र अनुभवों को इतना मंद कर दिया जाता है कि वह आदत या स्वभाव कोई बाधा उपस्थित न कर सके।
प्रश्न है कि आत्म-शोधन की प्रक्रिया क्या है और उसके सूत्र कौन-कौन-से हैं? अध्यात्म के साधकों ने, आत्म-द्रष्टाओं ने इस दिशा में बहुत ही महत्त्वपूर्ण खोजें की और सौभाग्य है कि उनकी खोजें आज भी हमारे समक्ष सुरक्षित हैं। ___मनुष्य की जितनी आदतें बनती हैं, उनका मूल उद्गम-स्थल है-ग्रन्थि-तंत्र। हमारे शरीर के दो मुख्य भाग हैं-एक है नाड़ी-तंत्र और दूसरा है-ग्रन्थि-तंत्र। नाड़ी-तंत्र में हमारी वृत्तियां अभिव्यक्त होती हैं, अनुभव में आती हैं और फिर व्यवहार में उतरती हैं। व्यवहार, अनुभव या अभिव्यक्तीकरण-यह सब नाड़ी-तंत्र का काम है। किन्तु आदतों का जन्म, आदतों की उत्पत्ति ग्रन्थि-तंत्र में होती है। जो हमारी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां हैं, उनमें आदतें जन्म लेती हैं। वे ही आदतें मस्तिष्क के पास पहुंचती हैं, अभिव्यक्त होती हैं और व्यवहार में उतरती हैं। इसीलिए विज्ञान के क्षेत्र में एक नए शब्द का प्रचलन हुआ है-'न्यूरो एण्डोक्रीन सिस्टम'। इसका अर्थ है-ग्रन्थि-तंत्र और नाई-तंत्र का संयुक्त कार्य।
हमारी वृत्तियां, भाव या आदतें-इन सबको उत्पन्न करने वाला सशक्त तंत्र है-लेश्या-तंत्र। जब तक लेश्या-तंत्र शुद्ध नहीं होता, तब तक आदतों में परिवर्तन नहीं हो सकता। लेश्या-तंत्र को शुद्ध करना आवश्यक है। उसको शुद्ध करने की प्रक्रिया को समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि अशुद्धि कहां जन्म लेती है और कहां प्रकट होती है। यदि हम उस तंत्र को ठीक समझ लेते हैं तो उसे शुद्ध करने की बात को समझने में बड़ी सुविधा हो जाती है।
बुरी आदतों को उत्पन्न करने वाली तीन लेश्याएं हैं-कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या और कापोत-लेश्या। क्रूरता, हत्या की भावना, कपट, असत्य बोलने की भावना, प्रवंचना, धोखाधड़ी विषय की लोलुपता, प्रमाद, आलस्य-आदि जितने दोष हैं; यह सब इन तीन लेश्याओं से उत्पन्न होते हैं। हमारे इस स्थूल शरीर में इन लेश्याओं के संवादी स्थान हैं, ६८ आभामंडल
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