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जिनमें ये वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। अधिवृक्कग्रन्थियां (एड्रीनल ग्लैण्ड्स)
और जनन-ग्रन्थियां (गोनाड्स)-ये जो ग्रन्थियां हैं-इन लेश्याओं के प्रतिनिधि या संवादी स्थान हैं। उन तीन लेश्याओं के भाव यहां जन्म लेते हैं।
हम योग-शास्त्र की दृष्टि, लेश्या के सिद्धान्त की दृष्टि और वर्तमान के शरीर-शास्त्र की दृष्टि-इन तीनों दृष्टियों से इस पर विचार करें और इसकी तुलना करें।
वर्तमान विज्ञान की दृष्टि के अनुसार कामवासना का स्थान है-जनन-ग्रन्थियां (गोनाड्स) वहां कामवासना उत्पन्न होती है। वहां भय, आवेग, बुरे भाव जन्म लेते हैं। इन दोनों ग्रन्थियों ‘एड्रीनल और गोनाड्स' को योग-शास्त्र की भाषा में स्वाधिष्ठान-चक्र और मणिपूर-चक्र कहा जाता है। आश्चर्य न करें। सत्य को हम किसी छोर से पकड़ें, एक ही सत्य उपलब्ध होगा। यदि हम सत्य की दिशा में चलते हैं तो किसी भी कोण से चलें-चाहे शरीर को खोजते-खोजते चलें, चाहे योग की खोज में चलें
और चाहे अध्यात्म के दर्शन की खोज में चलें, किसी भी खोज में चलें जहां सत्य का बिन्दु है, वहां तक पहुंच जायेंगे। सबका एक-सा अनुभव होगा।
योग का एक ग्रन्थ है-आत्म-विवेक। उसमें बताया है कि क्रूरता, वैर, मूर्छा अवज्ञा और अविश्वास-ये सब स्वाधिष्ठान-चक्र में उत्पन्न होते हैं। तृष्णा, ईर्ष्या लज्जा, घृणा, भय, मोह, कषाय और विषाद-ये सब मणिपूर-चक्र में जन्म लेते हैं।
तीसरा है-अनाहत-चक्र। यह हृदय के स्थान का चक्र है। इस चक्र में लोलुपता, तोड़फोड़ की भावना, आशा, चिन्ता, ममता, दंभ, अविवेक, अहंकार-सारे जन्म लेते हैं।
ये तीन चक्र हैं-स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपूर-चक्र और अनाहत-चक्र-जहां हमारी सारी वृत्तियां जन्म लेती हैं।
__ अब हम लेश्या की दृष्टि से विचार करें। अविरति, क्षुद्रता, निर्दयता, नृशंसता अजितेन्द्रियता-ये कृष्ण-लेश्या के परिणमन हैं। ईर्ष्या, कदाग्रह, अज्ञान, माया, निर्लज्जता, विषय-वासना, क्लेश, रस-लोलुपता-ये नील-लेश्या
जो व्यक्तित्व का रूपान्तरण करता है (२) ६६
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