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________________ स्थूल-शरीर की सीमा तक काम करने वाली चेतना से समाधान लेना चाहता है। वहां उसका समाधान प्राप्त नहीं हो सकता। यदि हमारे पुरुषार्थ के विपरीत, पुरुषार्थ करते हुए भी परिणाम विपरीत आता है तो हमें फिर लेश्या के जगत् में, भाव के जगत् में जाकर समाधान खोजना होगा। कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है कि एक ओर तो हमारा पुरुषार्थ चल रहा है और उधर मन के द्वारा बुरे विचारों के परमाणुओं को, काले, नीले और कापोत वर्ण के परमाणुओं को खींचे जा रहे हैं तो पुरुषार्थ पर ऐसा आघात होगा, उन परमाणुओं से वह पुरुषार्थ टकराएगा और वह सफल नहीं होगा। हर बात को सापेक्षता से समझना होता है। महावीर ने कहा- 'पुरुष! तू ही तेरा मित्र है, तू ही तेरा शत्रु है।' यह भी सापेक्ष बात है। किस सीमा में आत्मा मित्र होता है, और किस सीमा में आत्मा शत्रु होता है? पुरुषार्थ की मित्र और शत्रु बनाने की क्या मर्यादाएं हैं? यदि हम स्थूल-जगत के साथ सूक्ष्म-जगत को नहीं समझते हैं, विचार, व्यवहार और चित्त की चेतना के साथ लेश्या और अध्यवसाय की चेतना को नहीं जोड़ते हैं तो पूरा समाधान प्राप्त नहीं होता। इसलिए व्यक्तित्व के रूपान्तरण के लिए हमें सूक्ष्म-जगत् पर ध्यान देना होता है। दो शब्द हैं-अजितेन्द्रिय और जितेन्द्रिय। सामाजिक-प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाला व्यक्ति एक सीमा तक जितेन्द्रिय होना चाहता है। साधना करने वाला व्यक्ति व्यापक सीमा तक जितेन्द्रिय होना चाहता है। किन्तु समस्या दोनों के सामने है कि क्या नियंत्रण से ही जितेन्द्रिय हो सकते हैं? बहुत कठिन बात है। जितेन्द्रिय होने के लिए इस नियंत्रण कक्ष से परे जाकर रंगों की समस्या पर भी हमें ध्यान देना होगा। यदि हम चमकते हए पीले रंग के परमाणओं को आकर्षित करते हैं तो जितेन्द्रिय होने की स्थिति निर्मित हो जाती है। हम जितेन्द्रिय हो सकते हैं। पद्म-लेश्या का अभ्यास करने वाला व्यक्ति जितेन्द्रिय हो जाता है। कृष्ण और नील लेश्या में रहने वाला व्यक्ति अजितेन्द्रिय होता है। कृष्ण-लेश्या का सूत्र है-अजिइंदिओ-अजितेन्द्रिय । पद्म लेश्या का सूत्र है-जिइदिओ-जितेन्द्रिय। ये दोनों प्रकार के परमाणु एक-दूसरे से विरोधी हैं। जब तक काले रंग के परमाणुओं का प्रभाव बना रहता है, तब तक हम जितेन्द्रिय नहीं जो व्यक्तित्व का रूपान्तरण करता है (१) ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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