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सारा संगठन विघटित हो जाए। कभी-कभी नेता की एक बात पर सारा शासन-तंत्र ही टूट जाता है। नेता अपने मन पर भी इतना नियंत्रण तो अवश्य ही रखे कि जो अपने मन में आया और वह कर ले - ऐसा कभी न हो । कुछ सोच-समझकर करे ।
मन पर, इन्द्रियों पर, वाणी पर और व्यवहार पर एक सीमित नियंत्रण की अपेक्षा सबको रहती है । किन्तु यदि कृष्ण लेश्या है, काले रंग के परमाणु निरंतर खींचे जा रहे हैं तो व्यक्ति के भाव बुरे बन जाते हैं। वह हजार बार ऐसा निश्चय कर ले, राजनीति का पाठ पढ़े, उपदेश सुने, फिर भी जब प्रसंग आएगा तो वह ऐसी बात कह देगा, जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है । ये काले रंग के परमाणु उसे संचालित कर रहे हैं। काले रंग के परमाणुओं से बनने वाले भाव उसे संचालित कर रहे हैं । वे भाव विचारों पर उतरते हैं । विचार व्यवहार पर उतरते हैं और व्यक्ति चाहे या न चाहे, वह अभद्र बात कह दी जाती है । व्यक्ति के मन में फिर चिन्तन आता है कि ऐसा नहीं कहना चाहिए था ।
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जब तक ये काले रंग के परमाणु, नीले और कापोतवर्ण के परमाणु आकर्षित होते रहते हैं और वे लेश्या - तंत्र और भाव- तंत्र को प्रभावित करते हैं, तब व्यक्ति का विचार हो या न हो, वह वैसा व्यवहार करना चाहे या न चाहे, किन्तु वह व्यवहार घटित हो जाएगा। इस बिन्दु पर आकर पुरुषार्थ की सीमा को भी समझना होता है । यह एक ऐसा बिन्दु है जहां पुरुषार्थ की सीमा का मूल्य समझ में आ सकता है।
हमारा कर्तृत्व स्वतंत्र है। आत्मा का कर्तृत्व स्वतंत्र है | हम पुरुषार्थ करते हैं, किन्तु पुरुषार्थ की सीमा है चित्त तक, स्थूल शरीर तक, स्नायविक जगत् तक। जहां भाव का जगत् है वहां पुरुषार्थ की सीमा बदल जाती है । यदि हमारे वैसे परमाणुओं का संग्रह हो रहा है, या हम वैसा संग्रह करते जा रहे हैं तो यह हमारा स्थूल पुरुषार्थ - चित्त, मन और शरीर - तंत्र का पुरुषार्थ - वहां काम नहीं दे सकता । स्थूल जगत् में कभी-कभी ऐसा लगता है, कि पुरुषार्थ तो चला, फिर भी वह सफल नहीं हुआ। वह सारी व्याख्या स्थूल-जगत् से लेना चाहता है । वह स्नायविक जगत् से,
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६४ आभामंडल
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