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की सीमा में नहीं हो सकता। वह हो सकता है-लेश्या की चेतना के स्तर पर। अब पुनः प्रश्न होता है कि हम उस लेश्या की चेतना के स्तर पर कैसे पहुंचें? किस माध्यम से पहुंचें जिससे कि हमारा व्यक्तित्व रूपान्तरित हो? . हमें यह यात्रा स्थूल-शरीर से ही प्रारंभ करनी होगी। हमें रंग का सहारा लेना होगा। रंग हमारे व्यक्तित्व को बहुत प्रभावित करते हैं। वे व्यक्तित्व पर जितना प्रभाव डालते हैं, उतना प्रभाव और कोई नहीं डालता। रंग स्थूल व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं और सूक्ष्म व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं। वे तैजस्-शरीर और लेश्या-तंत्र को भी प्रभावित करते हैं। रंगों का अखंड साम्राज्य है। वे अध्यवसाय ठेठ कर्म-शरीर तक काम करते हैं। आगे-पीछे चारों ओर रंग ही रंग हैं। यदि हम रंगों की क्रियाओं और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को समझ लेते हैं तो व्यक्तित्व के रूपान्तरण में हमें बहुत बड़ा सहयोग मिल सकता है। जो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को उदात्त करना चाहता है, अच्छा बनाना चाहता है तो वह सबसे पहले कुछ नियंत्रण करेगा। वह अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण करेगा। उनको वश में रखेगा। क्योंकि समाज में रहने वाला कोई भी व्यक्ति जिसका इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं होता, मन पर नियंत्रण नहीं होता, वह समाज में प्रतिष्ठित नहीं होता। इसलिए वह सबसे पहले मन और इन्द्रियों पर एक सीमा तक नियंत्रण करता है। समाज में जो व्यक्ति ऊंचे आसन पर हैं, उनके लिए नियंत्रण करना और अधिक जरूरी हो जाता है। इसीलिए राजनीति के आचार्यों ने कहा- 'जो बड़ा नेता होना चाहे वह सबसे पहले अपने पर नियंत्रण करे। अपनी इन्द्रियों पर काबू रखे। वे इन्द्रियों पर इतना नियंत्रण तो अवश्य ही रखें जिससे समाज में उनकी उच्छृखला प्रदर्शित न हो। लोग व्यवहार को देखते हैं। अध्यात्म सामने नहीं आता। व्यवहार सामने आता है। व्यवहार में भद्दा रूप प्रदर्शित न हो, यह अपेक्षित है। व्यक्ति में भद्दापन हो या न हो, समाज उसकी चिन्ता नहीं करता। वह इस बात की चिन्ता करता है कि व्यक्ति का भद्दापन प्रदर्शित न हो। नेता अपनी जबान पर इतना नियंत्रण तो अवश्य ही रखे कि वह ऐसी बात कभी न कहे जिससे
जो व्यक्तित्व का रूपान्तरण करता है (१) ६३
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