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हैं, तो आश्चर्य होता है। इतना बड़ा परिवर्तन कैसे घटित होता है? इसमें केवल आवरण का ही परिवर्तन नहीं हुआ है। डाकू ने संत का चोगा नहीं पहना और संत ने डाकू का चोगा नहीं पहना। किन्तु दोनों में रूपान्तरण घटित हुआ है। यह रूपान्तरण भाव-जगत् में घटित होता है तब ऐसा होता है। यह भाव-जगत् की घटना है, लेश्या-जगत् की घटना है। वह एक ऐसा संस्थान है, कारखाना है, जहां सब कुछ बदल जाता है। वहां व्यक्ति के सारे भावों का रूपान्तरण हो जाता है और व्यक्ति आमूलचूल बदल जाता है। जब भाव बदल जाता है, तब भाव के पीछे चलने वाला विचार अपने आप बदल जाता है। जब विचार बदल जाता है, तब विचार के पीछे चलने वाला व्यवहार अपने आप बदल जाता है।
हम फिर बदलने की बात को समझें। हम व्यवहार को नियंत्रण के द्वारा ही बदल सकते हैं। हम विचार को नियंत्रण के द्वारा ही बदल सकते हैं। ऐसा विचार मत करो कि निषेध ही चलेगा। दोनों चलेंगे। वास्तव में विधि और निषेध अलग-अलग नहीं हैं। दोनों एक हैं। कुछ लोग इस बात पर उलझ जाते हैं कि इस वैज्ञानिक युग में नियंत्रण की बात करना सारे विज्ञान को उलट देना है। वे भूल जाते हैं इस बात को कि विधि और निषेध को सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता। विद्युत् के दो प्रकार हैं-पोजिटिव और नेगेटिव। दोनों को अलग कर दें, बिजली नहीं जलेगी, दोनों का योग करें, बिजली जल उठेगी। विधि
और निषेध-दोनों निरन्तर साथ-साथ चलते हैं। एक का विधान करते हैं तो दूसरे का निषेध स्वतः प्राप्त हो जाता है।
आज की चिकित्सा-प्रणाली में थोड़ा-सा अन्तर है। वह है खंड चिकित्सा-प्रणाली। एक समय ऐसा था जब अखंड चिकित्सा-प्रणाली चलती थी। घुटने में दर्द है। पुराने चिकित्सक घुटने का इलाज नहीं करते। वे कहते-यह तो रोग का लक्षण है। यह घुटने में अभिव्यक्त हुआ है। घुटने में क्या है जो रोग हो जाए? यह तो इस बात की सूचना देता है कि शरीर में रोग है। सिर में दर्द है। सिर के दर्द का इलाज, नहीं होगा। शरीर का इलाज होगा। न घुटने के दर्द का इलाज, न सिर के
जो व्यक्तित्व का रूपान्तरण करता है (१) ६१
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