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अन्तर है। केवल प्रकंपनों का अन्तर है और कोई अन्तर नहीं है। विज्ञान के जगत् में इन विरोधी बातों को सुलझाने का बहुत प्रयत्न हुआ है। एक है-रंग और एक है-शब्द। वैज्ञानिक कहेगा-इनमें कोई अन्तर नहीं है। केवल फ्रीक्वेन्सी का अन्तर है। रंग को सुना जा सकता है। यदि रंग को शब्द की फ्रीक्वेन्सी प्राप्त हो जाए तो वह भी सुनाई दे सकता है। फ्रीक्वेन्सी का अन्तर मिट जाए तो रंग और शब्दों में कोई अन्तर नहीं रह जाता। ध्वनि को देखा जा सकता है, यदि उसे रंग की फ्रीक्वेन्सी प्राप्त हो जाए। प्रेम, घृणा आदि मूर्छा की फ्रीक्वेन्सियां हैं, मूर्छा के प्रकंपन हैं। प्रकंपनों की मात्रा घट-बढ़ जाती है, तब प्रेम उभरता है, घृणा उभरती है। प्रेम ही आवृत्तियों के भेद से घृणा बन जाता है। एक ही मूर्छा के नानारूप बन जाते हैं। क्रोध भी मूर्छा है, मान भी मूर्छा है, माया और लोभ भी मूर्छा है। भय भी मूर्छा है, कामवासना भी मूर्छा है। एक ही मूर्छा के ये नानारूप हैं। ये नानारूप हमारे जीवन में अभिव्यक्त होते रहते हैं। इसलिए एक बच्चा जो कभी प्रेम करता है, कभी घृणा करता है, वह केवल मां से ही नहीं सीखता, जैसा कि मनोविज्ञान मानता है, किन्तु प्रेम और घृणा का सारा प्रवाह उस मूर्छा से आ रहा है जो भीतर पल रही है। वह मूर्छा बाह्य-जगत् की उत्तेजनाओं का निमित्त पाकर उभरती है, उत्तेजित होती है। हम सूक्ष्म-जगत् और स्थूल-जगत् की घटनाओं को ठीक से समझ लेते हैं तो व्यक्तित्व के रूपान्तरण की बात भी स्पष्टता से समझ में आ जाती है।
व्यक्तित्व का रूपान्तरण लेश्या की चेतना के स्तर पर हो सकता है। लेश्याएं अच्छी होंगी तो व्यक्तित्व बदल जाएगा। लेश्याएं बुरी होंगी तो व्यक्तित्व बदल जाएगा। दोनों ओर बदलेगा, रूपान्तरण घटित होगा। इसलिए हमें बहुत आश्चर्य होता है कि एक दुर्दान्त डाकू था और वह अचानक संत बन गया। एक संत था वह अचानक डाकू बन गया। यह कैसे होता है? जिस व्यक्ति को हमने पचास वर्ष तक संत का जीवन जीते देखा और उसी को अन्तिम अवस्था में डाका डालते हुए देखते हैं, आश्चर्य होता है। जिस व्यक्ति को हमने पचास वर्ष तक डाकू का जीवन जीते देखा और उसी को जब एक संत के रूप में देखते ६० आभामंडल
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