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________________ तरंगों की भाषा है। वहां कोई रेखाएं नहीं हैं। * अध्यवसाय की भाषा तरंग की भाषा है, स्पंदन की भाषा है। * लेश्या की भाषा रेखांकन की भाषा है। * मन की भाषा चित्र की भाषा है। * आदमी की भाषा लिपि की भाषा है-अक्षरात्मक भाषा है। हम जो सूक्ष्म जगत् में करते हैं, वह सारा स्थूल जगत् में उतरता है। मनोवैज्ञानिकों ने जो व्याख्याएं की हैं, वे वास्तव में जटिल बनी हैं। वे अधूरी हैं। क्योंकि वे व्यवहार की व्याख्या परिस्थिति के आधार पर करते हैं। एक व्यक्ति कभी घृणा भी करता है और कभी ऐम भी करता है। यह कैसे हो सकता है कि एक ही व्यक्ति कभी घृणा करे और कभी प्रेम करे। आश्चर्य इस बात का है कि वह व्यक्ति प्रातःकाल जिससे घृणा करता है, सायंकाल उससे प्रेम करने लग जाता है। यह क्यों होता है? व्यावहारिक मनोविज्ञान इस प्रश्न के उत्तर में कहता है कि जो व्यक्ति जिस प्रकार के ऑब्जेक्ट से जो बात सीखता है, वह वैसा ही करने लगता है। वह व्यक्ति बचपन में ही यह बात सीख चुका है। माता ने उसे कभी दुलारा, प्यार किया तो उसने प्रेम सीख लिया। माता ने उसे कभी डांटा, फटकारा तो उसने घृणा सीख ली, क्रोध करना सीख लिया और उत्तेजित होना सीख लिया। व्यक्ति जो कुछ सीखता है, वह सारा व्यवहार से सीखता है। मनोविज्ञान व्यवहार का इससे आगे कोई समाधान नहीं दे पाता। किन्तु हमारा व्यवहार इतना सरल नहीं है। वह इतना जटिल और इतनी जटिलताओं से भरा है कि केवल परिस्थिति के प्रतिबिम्बों को ग्रहण करने से पूरा समाधान नहीं हो सकता। किन्तु यदि हम इन सारी समस्याओं को व्यवहार-जगत् से विचार-जगत् तक ले जाएं, विचार-जगत् से भाव-जगत् तक ले जाएं और भाव-जगत् से अध्यवसाय-जगत् तक ले जाएं, तब हमें पूरी व्याख्या प्राप्त हो सकती है, पूरा समाधान हो सकता है। ___अध्यवसाय के जगत् में, कर्म-शरीर के जगत् में एक मूर्छा है। प्रेम भी मूर्छा है और घृणा भी मूर्छा है। प्रेम करना भी मूर्छा है और घृणा करना भी मूर्छा है। दोनों एक हैं, दो नहीं हैं। केवल मात्रा का जो व्यक्तित्व का रूपान्तरण करता है (१) ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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