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कोई अलग नहीं है। अहं का ही एक रूप है-ममकार। जब अहंकार किसी के साथ घनिष्ठ संबंध जोड़ लेता है, किसी को घनिष्ठ मान लेता है तो वह अहंकार ममकार के रूप में बदल जाता है। मेरा शरीर, मेरा धन, मेरा परिवार, मेरा घर-यह जो मेरापन है वह सारा ममकार है। यह अहं का ही विस्तार है। अहंकार ने शरीर, धन आदि के साथ घनिष्ठता स्थापित कर ली, और वह ममकार के रूप में बदल गया। इस अहं का विसर्जन कठिन होता है। आत्म-शोधन में यह बहुत बड़ी बाधा है। जो व्यक्ति आत्म-नियंत्रण करता है, उसके लिए यह सुविधा हो जाती है कि जब तक आत्म-नियंत्रण करता है, बाहरी आवेगों और बाहरी निमित्तों से बचता है तो अहं के शोधन की, अहं के विसर्जन की संभावनाएं उसके सामने सहजरूप में उपस्थित हो जाती हैं।
अहं की ग्रन्थि बहुत जटिल होती है। उसको तोड़ना कठिन होता है। उसके शोधन की प्रक्रिया के दो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं-स्वाध्याय और ध्यान। इन दो साधनों के द्वारा अहं की ग्रन्थि को काटा जा सकता है। अपने-आपको जानने का प्रयत्न, अध्ययन, मनन और चिन्तन स्वाध्याय है। जब यह ज्ञान और चिंतन एकाग्रता की निश्चित बिन्दु पर पहुंचता है, तब वह ध्यान बन जाता है। ज्ञान और ध्यान, स्वाध्याय और ध्यान एक ही हैं; वास्तव में, दो नहीं हैं। केवल मात्रा का अन्तर है, परिमाण का अंतर है। पानी पानी है और पानी बरफ भी है। पानी में और बरफ में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु बिन्दु का अन्तर है। तापमान के एक बिन्दु पर पानी पानी है और अंतिम बिन्दु पर वही बरफ बन जाता है, जम जाता है। पानी तरल है। ज्ञान तरल है। बरफ ठोस है, सघन है। ध्यान ठोस है, सघन है। ज्ञान ही एक बिन्दु पर पहुंचकर ध्यान बन जाता है। ज्ञान और ध्यान, स्वाध्याय और ध्यान-ये तो ऐसे साधन हैं जो अहं की ग्रन्थि को तोड़ डालते हैं।
आत्म-शोधन की प्रक्रिया के दो साधन हैं-ज्ञान और ध्यान, स्वाध्याय और ध्यान। ये दोनों तप हैं। ये अहं की सारी जड़ों को उखाड़ डालते हैं। आत्म-शोधन नियंत्रण की प्रक्रिया आत्म-शोधन के साथ-साथ चलती है। जहां कोरा आत्म-नियंत्रण होता है, आत्म-शोधन नहीं होता, कोरा
स्थूल और सूक्ष्म जगत् का सम्पर्क-सूत्र ४१
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