________________
या सार्वभौम विचार मानकर जैसा होता है वैसा का वैसा स्वीकार कर लिया जाता है तो सत्य की दिशा उलट जाती है और हम स्वयं असत्य की ओर प्रस्थान कर देते हैं।
यदि केवल दमन ही होता तो बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं होती। किन्तु अध्यात्म की साधना में दमन के साथ-साथ शोधन की क्रिया भी प्रस्तुत है। कोरा दमन नहीं, कोरा नियंत्रण नहीं। आत्म-नियंत्रण,
आत्म-शोधन-दोनों साथ-साथ चलते हैं। आत्म-नियंत्रण आत्म-शोधन के लिए है। आत्म-शोधन उद्देश्य है तो आत्म-नियंत्रण उसका साधन है। आत्म-शोधन साध्य है तो आत्म-नियंत्रण उसका साधन है। किन्तु साधन का उपयोग न किया जाए, यह बात समझ में नहीं आती। साधन का उपयोग बहुत ही आवश्यक है, किन्तु इस बात को भी विस्मृत नहीं कर देना चाहिए कि आत्म-शोधन परम आवश्यक है। शोधन की प्रक्रिया निरंतर होनी चाहिए। यह निरंतर चालू रहनी चाहिए। आत्म-शोधन या अन्तर-शोधन की सबसे बड़ी बाधा है-अहं। यह बहुत बड़ी समस्या है। व्यक्ति कुछ अर्जित किए हुए होता है। न जाने उसने कितनी गलत आदतें, गलत संस्कार अर्जित किए हुए है। किन्तु आदमी उनका प्रायश्चित्त करना नहीं चाहता, उनका शोधन, परिमार्जन और परिष्कार करना नहीं चाहता और इसलिए नहीं चाहता कि अहं उसमें बाधक बन बैठा है। 'मैंने यह किया और मैं यह स्वीकार करूं कि यह अच्छा नहीं हुआ, ऐसा कभी नहीं हो सकता।' अहं की एक ग्रन्थि मन में निर्मित हो जाती है। उसका शोधन नहीं होता, प्रायश्चित्त नहीं होता। वह आदमी दुष्कृत की गर्दा नहीं कर सकता, सुकृत की अनुमोदना नहीं कर सकता
और अध्यात्म की शरण में नहीं जा सकता। जो व्यक्ति दुष्कृत की गर्दा नहीं कर सकता, सकृत की अनुमोदना नहीं कर सकता और अध्यात्म की शरण में आत्मा की शरण में नहीं जा सकता, वह प्रायश्चित्त नहीं कर सकता। अहं की सबसे बड़ी बाधा है इसमें। जो अहं भाव से पीड़ित है वह विनम्र नहीं हो सकता। वह दूसरों को सहयोग नहीं दे सकता, संयम का भी योग नहीं दे सकता। उसे पग-पग पर अहं सताने लग जाता है। अहं जब विस्मृत होता है तब ममकार बन जाता है। ममकार
४०
आभामंडल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org