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अभीष्ट अक्षरों पर पड़ती हैं और जैसा चाहा वैसा टाइप हो जाता है। फिर 'की बोर्ड' को देखने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि अंगुलियां अभ्यस्त हो चुकी हैं। हम स्नायुओं को जैसी आदत देते हैं, वे अपने आप काम करने लग जाते हैं। उस काम की संपूर्ति में मन की संपृक्ति आवश्यक नहीं होती।
इसी प्रसंग में उन्होंने यह भी कहा-जब आदत डालो तो कोई अपवाद मत रखो, छूट मत रखो। पूरी आदत बना दो। आज ध्यान किया। स्नायुओं को ध्यान की आदत दी। कल छोड़ दिया। परसों छोड़ दिया। चौथे दिन फिर ध्यान में बैठे। इस प्रकार छूट देने से वह आदत नहीं बनती। छूट मत दो। प्रतिदिन वह कार्य करते रहो। भगवान महावीर ने कहा-प्रतिक्रमण करना है तो वह यथासमय करना ही है। ऐसा नहीं कि आज किया, कल छोड़ा, परसों छोड़ा और फिर चौथे दिन किया। ऐसा करने पर प्रतिक्रमण की आदत कभी नहीं बनेगी। आज क्षमा करें, सहिष्णुता का भाव दिखाएं और कल फिर लड़ाई करें, फिर क्षमा करें तो क्षमा की आदत नहीं बनेगी। आदत डालनी है तो कोई अपवाद मत रखो जब तक कि वह आदत न बन जाए। वह स्वभाव न बन जाए तब तक कोई अपवाद मत रखो। यह है हमारा कायक्लेश का सूत्र। कायक्लेश का सूत्र है कि आसन, प्राणायाम, कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं द्वारा शरीर को इतना साध लो, जिससे कि वह वही कार्य करे जिसका तुम उसे निर्देश दो। यह है
आत्म-नियंत्रण का दूसरा सूत्र-शरीर को साधना। ३. आत्म-नियंत्रण का तीसरा सूत्र है-प्रतिसंलीनता। इसका अर्थ
है-जो कुछ हो रहा है वह न होने दें, किन्तु उसे उलट दें। दो क्रम चलते हैं। एक है प्राकृतिक क्रम और एक है साधना का क्रम। एक प्राकृतिक क्रम है। हमें कुछ विशेष अवयव
उपलब्ध हैं। एक है शक्ति केन्द्र। सारी काम की चेष्टाएं इस आभामंडल
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