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चैतन्य के स्पंदनों को जाने के लिए रास्ता न छोड़ दे। कषाय मंद होता है, इसका अर्थ होता है कि कषाय-महासागर चैतन्य की रश्मियों को बाहर जाने का रास्ता करता है। चैतन्य की रश्मियां उसी रास्ते से बाहर जाती हैं, जहां कषाय के तीव्र अनुभवों का स्पर्श नहीं होता। उस रास्ते से वे चैतन्य की शुद्ध रश्मियां बाहर आ जाती हैं और ये शुद्ध धाराएं शुद्ध अध्यवसाय का निर्माण करती हैं। शुद्ध अध्यवसाय शुद्ध-भावों का निर्माण करते हैं और शुद्ध-भाव विचारों को शुद्ध बनाते हैं-मन, वचन और काया को शद्ध बनाते हैं।।
शुद्ध और अशुद्ध के दो कारण बन गए। शुद्ध होने का कारण है कषाय की मंदता और अशुद्ध होने का कारण है कषाय की तीव्रता।
प्रश्न होता है कि कषाय की मन्दता कैसे हो? इसका एकमात्र उपाय है-साधना। जो व्यक्ति साधना करता है वह व्यक्ति कषाय को मन्द करने का उपक्रम करता है। साधना ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, कषाय का मजबूत मोर्चा शिथिल होने लगता है, निष्क्रिय होने लगता है। साधना का मूल प्रयोजन है-कषाय को मंद करना, कषाय की शक्ति को क्षीण करना, चैतन्य की पवित्र धारा में मिल जाने वाले कषाय के अपवित्र जल को निकाल देना, जिससे कि वह शुद्ध बन जाए, पवित्र बन जाए। पवित्र शब्द भी समाप्त हो जाए और अपवित्र शब्द भी समाप्त हो जाए, चैतन्य वैसा का वैसा ही रह जाए। क्योंकि जब अपवित्र होता है तब पवित्र करने की बात प्राप्त होती है। वास्तव में चैतन्य न अपवित्र है और न पवित्र। वह तो एक प्रकाश है, आलोक है, ज्योति है। वह जैसी है वैसी है। उसके लिए पवित्र या अपवित्र विशेषण लगाने की जरूरत नहीं है। विशेषण को इसलिए लगाना पड़ता है कि कषाय के द्वारा जब चैतन्य की धारा अपवित्र हो जाती है, मलिन हो जाती है तो उसकी सापेक्षता में चैतन्य को पवित्र कहना पड़ता है। किन्तु हम साधना के द्वारा उस स्थिति का निर्माण करना चाहते हैं कि चैतन्य कोरा चैतन्य ही रहे। यह पवित्र और अपवित्र विशेषण उससे कट जाए।
वह साधना क्या है जिसके द्वारा कषाय को मंद किया जा सकता है? यह एक प्रश्न है। इस पर हम सोचेंगे तो यह स्पष्ट प्रतिभासित ३० आभामंडल
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