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सूक्ष्म रूप में स्पंदन ही स्पंदन हैं। अध्यवसाय में हम देखेंगे तो क्रोध की तरंग होगी, क्रोध का भाव नहीं होगा। परम शरीर में, सूक्ष्म शरीर में क्रोध की तरंगें होंगी, क्रोध का भाव नहीं होगा। वहां तक कोरी तरंगें होती हैं। वे तरंगें जब सघन होकर भाव का रूप लेती हैं, वे लेश्या बन जाती हैं। लेश्या में पहुंचकर भाव बनता है और तरंगें ठोस रूप ले लेती हैं। शक्ति, ऊर्जा पदार्थ में बदल जाती है। तरंग का सघन रूप भाव और भाव का सघन रूप क्रिया। जब भाव सघन बनता है तो वह क्रिया बन जाती है और हमारे स्थल शरीर में प्रकट होती है और हमें दिखने लग जाती है। हम क्रिया को देखते हैं। क्रोध की क्रिया को देखते हैं, क्रोध के लक्षणों को देखते हैं, क्रोध के चिह्नों को देखते हैं, क्षमा के चिह्नों को देखते हैं, क्षमा के लक्षणों को देखते हैं। उन चिह्नों के सहारे आगे यात्रा शुरू करते हैं। स्थूल से सूक्ष्म की ओर, तब पहले भाव-तंत्र तक पहुंचते हैं, लेश्या-तंत्र तक पहुंचते हैं और फिर तरंगों के जगत् में जाते हैं तो अध्यवसाय आता है और फिर कषाय-तंत्र आता है और फिर उस चैतन्य के स्पंदन तक भी पहुंच जाते हैं, जहां से चैतन्य के स्पंदन उद्भूत होते हैं। बहुत बड़ा प्रश्न है। एक चैतन्य का महासागर है। उससे बाहर आते हैं तो कषाय का महासागर मिलता है, जहां से सारी मलिनता बाहर आ रही है। किन्तु चैतन्य तो मलिन नहीं है, वह तो शुद्ध है, फिर यह अशुद्धता क्यों? कारण स्पष्ट है। उस चैतन्य महासागर के चारों ओर एक वलय है-कषाय के महासागर का। एक प्रश्न और होता है कि कषाय का महासागर जब चैतन्य के महासागर को घेरे हुए है तो फिर शुद्ध का प्रश्न ही कहां उठता है। जो कुछ बाहर आएगा वह सारा अशुद्ध ही होगा। शुद्ध-लेश्या कैसे होगी? शुद्ध-भाव कैसे होगा? शुद्ध-अध्यवसाय कैसे होगा? कषाय से छनकर और कषाय के रस के साथ मिलकर जो कुछ भी बाहर आएगा, वह मलिन, अपवित्र और अशुद्ध ही आएगा। शुद्ध कैसे होगा? लेश्या की शुद्धि अध्यवसाय से होती है
और अध्यवसाय की शुद्धि एक कषाय से होती है। लेश्या हमारा भाव है। यदि अध्यवसाय शुद्ध न हो तो वह कभी शुद्ध नहीं हो सकता। अध्यवसाय कभी शुद्ध नहीं होता, यदि कषाय के महासागर का वलय
अच्छे-बुरे का नियंत्रण कक्ष २६
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