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तक पहुंच जाते हैं इस दर्पण के प्रतिबिम्बों के द्वारा । जब देखते हैं आंखों में एक घृणा का भाव तैर रहा है, आंख को देखते हैं और भाव तक पहुंच जाते हैं। जब देखते हैं कि आंख में से कुछ टपक रही है । हम प्रियता के भाव तक पहुंच जाते हैं। आंखों में देखते हैं, आकृति में देखते हैं। यह समूची आकृति कितना स्वच्छ दर्पण है कि उसमें भीतर का सब कुछ प्रतिबिम्बित हो जाता है। यदि यह आकृति नहीं होती तो शायद भावों को जानने का हमारे पास कोई माध्यम नहीं होता । आकृति को देखकर जान जाते हैं कि आदमी क्रुद्ध है। आकृति को देखकर जान जाते हैं कि आदमी क्षमारत है, सहिष्णु है । क्रोध और क्षमा- दोनों हमारे सामने प्रकट नहीं होते। क्योंकि सहिष्णुता और क्रोध - दोनों इस शरीर के धर्म नहीं हैं । वे जहां जन्म लेते हैं और प्रकट होते हैं, उनका स्थान कोई दूसरा है । हमारे सारे भाव सूक्ष्म जगत् में जन्म लेते हैं और इस स्थूल शरीर में प्रतिबिम्बित होते हैं। एक है हमारा प्रतिबिम्ब का जगत् या प्रतिबिम्बों को पकड़ने का जगत् और दूसरा है हमारे भावों को जन्म लेने का जगत् । हमारी यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है । स्थूल को छोड़ते हैं तब सूक्ष्म की ओर यात्रा शुरू करते हैं । हम स्थूल शरीर को छोड़कर भाव- शरीर तक पहुंच जाते हैं । लेश्या तक पहुंच जाते हैं । लेश्या से भी आगे यात्रा शुरू करते हैं तो अध्यवसाय तक पहुंच जाते हैं । अध्यवसाय से आगे यात्रा शुरू करते हैं तो कषाय तक पहुंच जाते हैं । कषाय से आगे यात्रा शुरू करते हैं तो परमतत्त्व - आत्मा तक पहुंच जाते हैं ।
कषाय या अतिसूक्ष्म शरीर में केवल स्पंदन है, कोरी तरंगें । वहां भाव नहीं हैं, कोरी तरंगें हैं। वहां चेतना के स्पंदन भी हैं और कषाय के स्पंदन भी हैं। दोनों स्पंदन हैं। दोनों महासागर हैं। एक है चैतन्य का महासागर और एक है कषाय का महासागर। दोनों में स्पंदन ही स्पंदन हैं, तरंगें ही तरंगें हैं। वे तरंगें बाहर आती हैं । वे अध्यवसाय तक पहुंचती हैं, तब भी तरंगें, केवल स्पंदन । अध्यवसाय का मतलब ही है कि सूक्ष्म चैतन्य का स्पंदन | सूक्ष्म इसलिए कि उसका कोई केन्द्र - विशेष नहीं है । शरीर में उसका कोई विशेष केन्द्र नहीं है । वे अपने
आभामंडल
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