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ने पूछा-'भंते! यह कैसे हो सकता है कि सोया व्यक्ति कर्मबंध करता है?' इस तथ्य को समझाने के लिए दो उदाहरण प्रस्तुत किए गए। एक है संज्ञी का उदाहरण और दूसरा है असंज्ञी का उदाहरण। असंज्ञी का उदाहरण बहुत महत्त्व का है। वह अध्यवसाय की सारी स्थिति को स्पष्ट करता है। एक वनस्पति का जीव है। उसके न मन है, न वचन है, केवल शरीर है। वह जीव निरंतर सोया रहता है। उसके लिए न कोई दिन होता है और न कोई रात। सब कुछ रात ही रात है। वह जीव केवल सोता ही सोता है। मनशून्य और वचनशून्य। वह वनस्पति का जीव भी अठारह पापों का सेवन करता है। अठारह पापों से होने वाला कर्मबंध उसका होता है। ऐसा क्यों होता है? यह इसलिए होता है कि उस जीव के अध्यवसाय होते हैं, असंख्य अध्यवसाय होते हैं। वे अध्यवसाय विशुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार के होते हैं। अशुद्ध अध्यवसाय होते. हैं, इसलिए उनके कर्म का बंध होता है। हिंसाजनित कर्म का बंध भी होता है और परिग्रहजनित कर्म का बंध भी होता है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभजनित कर्म का बंध भी होता है। वह जीव अपने शत्रुओं की हिंसा करता है, इसलिए हिंसाजनित कर्म का बंध होता है। बहुत उलझन-भरी बात है। क्या ऐसा होना संभव है? हां, संभव है।
हम वर्तमान के विज्ञान की दृष्टि को भी समझें। हमने मस्तिष्क, मन और वचन को बहुत बड़ा स्थान दे दिया। किन्तु हमारे ज्ञान का सबसे बड़ा स्रोत है अध्यवसाय। अध्यवसाय के बाद जो ज्ञान होता है, शारीरिक दृष्टि से, तो वहां ज्ञान के बड़े स्रोत हैं-हमारी कोशिकाएं। जिन जीवों के मस्तिष्क नहीं होता, मन नहीं होता, उनकी कोशिकाएं सारा ज्ञान करती हैं। वनस्पति के जीव जितने संवेदनशील होते हैं, मनुष्य उतने संवेदनशील नहीं होते। वनस्पति में अध्यवसाय का सीधा परिणाम होता है, इसलिए उन जीवों में जितनी पहचान, जितनी स्मृति और दूसरों के मनोभावों को जानने की जितनी क्षमता होती है, वैसी क्षमता बहुत सारे मनुष्यों में भी नहीं होती।
वैज्ञानिक वेकस्टन ने वनस्पति पर अनेक प्रयोग किए। उसने एक
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