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हैं। वे चेतन या जीव की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार नहीं करते। यह विभेद क्यों? विमर्श करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि जिन लोगों ने चित्त तक की यात्रा की, उससे आगे नहीं जा सके, उन्होंने आत्मा को स्वीकार नहीं किया। चित्त तक पहुंचने वाला आत्मा को स्वीकृति नहीं दे सकता। उसको आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं हो सकता। जिन लोगों ने चित्त से परे की यात्रा की, जो चित्त से आगे बढ़े, उन्होंने आत्मा को स्वीकार किया। एक है अध्यवसाय और एक है चित्त। चित्त तक की यात्रा शरीर-संबद्ध यात्रा होती है। अध्यवसाय तक की यात्रा शरीर से परे की यात्रा होती है। जब हम अध्यवसाय तक पहुंचते हैं वहां हमारा संबंध शरीर से छूट जाता है। शरीर इस पार रह जाता है
और अध्यवसाय उस पार रह जाता है। शरीर और अध्यवसाय का कोई संबंध नहीं है। ___आत्मवादी दर्शन आत्मा और शरीर को भिन्न मानते हैं, दो मानते हैं। दो मानने पर दोनों में संबंध कैसे हो सकता है? वह कौन-सा बिन्दु है जहां आत्मा और शरीर परस्पर मिलते हैं, जुड़ते हैं। उस बिन्दु की खोज होनी चाहिए। इस खोज के परिणामस्वरूप यात्रा शरीर से बहुत आगे बढ़ गई। उस यात्रा के सारे बिन्दुओं को समझे बिना आत्मवादी व्यक्तित्व को नहीं समझा जा सकता। शरीरवादी व्यक्तित्व इन्द्रिय, मन और चित्त तक जाकर रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ता। आत्मवादी व्यक्तित्व की व्यूह-रचना बहुत जटिल है। स्थूल शरीर, इन्द्रियां, मन, चित्त, अध्यवसाय, कषाय का वलय और फिर चेतन-आत्मा। हम आत्मा से चलें। केन्द्र में एक चेतन तत्त्व है। उसे हम द्रव्यात्मा-मूल आत्मा कहते हैं। यह मूल चैतन्य का केन्द्र है। उसकी परिधि में अनेक तत्त्व काम करते हैं। उस चेतन तत्त्व के बाहर कषाय का वलय है। कषाय का तंत्र इतना मजबूत है कि वह आत्मा पर अपना अधिकार जमाए बैठा है। यद्यपि चेतन तत्त्व को शासक का स्थान प्राप्त है, फिर भी उस शासक का सेनापति कषाय इतना शक्तिशाली है कि उसकी इच्छा के बिना शासक कुछ नहीं कर सकता। वह सेनापति जो निर्णय ले लेता है, शासक को वह स्वीकार करना ही पड़ता है। चेतन तत्त्व और कषाय १६ आभामंडल
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