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________________ ये दोनों भीतर ही जन्मे हैं? नहीं, ये बाहर से भीतर गए हैं। सारी नदियों का पानी बाहर से भीतर गया है और धीरे-धीरे महासागर बन गए। भीतर जाने का माध्यम था-शरीर। शरीर ने आस्रवों को अपने में समाहित किया और इतना लंबा समय बीत गया कि वह पानी एकत्रित होते-होते महासागर के रूप में परिणत हो गया। शरीर ने ही नदियों का महासागर कर अपने में महासागर का निर्माण किया है। इसलिए शरीर बहुत महत्त्वपूर्ण माध्यम है। जो प्रवाह शरीर के बाहर जाता है, वह भी शरीर के माध्यम से और जो प्रवाह भीतर आता है, वह भी शरीर के माध्यम से। इसलिए यदि हम कहें-'काय एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः'-शरीर ही बन्धन और बन्धन-मुक्ति का कारण है, तो अच्छी बात होगी। साथ-साथ हम यह भी कहें-'वागेव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः' और 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।' तीनों को मिलाने पर पूरी बात होगी। यदि हम शरीर के प्रति जागरूक हो जाते हैं, इस मूर्छा को तोड़ डालते हैं, स्नायु-संस्थान पर नियंत्रण कर लेते हैं, उसमें उठने वाली उत्तेजनाओं और वासनाओं की तरंगों को बदल देते हैं तो बहुत महत्त्व का कार्य घटित हो जाता है। उपशमन की क्रिया संपन्न हो जाती है। फिर माया विफल, लोभ विफल, जितनी बीमारियां उभरना चाहती थीं, वे सारी विफल। जब विफल करने की चाबी हाथ लग जाती है, तब पहले सब उत्तेजनाओं को विफल कर, उपशांत कर, फिर उनके उन्मूलन का प्रयत्न किया जाता है। धीरे-धीरे उनका उन्मूलन हो जाता है। प्रेक्षा की फलवत्ता इसी से समझी जा सकती है कि जिस व्यक्ति ने अपने शरीर के प्रति जागना शुरू कर दिया, उसने भीतर से आने वाली बुराई के प्रवाह को रोक दिया और वह उपशमन की क्रिया करते-करते एक दिन उन सभी बुराइयों को क्षीण करने की स्थिति तक पहुंच जाएगा। १४ आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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