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________________ घटित हो जाती है, क्योंकि नाड़ी-संस्थान को वह अभ्यास बन जाता है। मन बेचारा कुछ नहीं कर सकता। नाड़ी-संस्थान मन का अनुचर नहीं है, मन का दास नहीं; इसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। इस स्थिति में केवल एक ही दंड-मनोदंड को नहीं माना जा सकता। वाणी का अपना तंत्र है, मन का अपना तंत्र है और काया का अपना तंत्र है। नाड़ी-संस्थान हमारा क्रिया-तंत्र है। उसके तीन उपतंत्र हैं-एक मन का, एक वाणी का और एक काया का। तीनों का अपना-अपना मूल्य है। न मन को अधिक मूल्य दिया जा सकता है और न वाणी और शरीर को-तीनों का स्वतंत्र मूल्य है। कई बार हम कह देते हैं-मैं यह कहना तो नहीं चाहता था, पर वाणी से निकल गया। यह वाणी तंत्र के स्वतंत्र अस्तित्व का द्योतक है। हमने जिस स्थिति में वाणी को जैसा अभ्यास दे दिया, उस प्रकार की घटना घटित हो जाती है। क्रोध उभरा और आपके न चाहने पर भी वैसे शब्द निकल जाएंगे जो अप्रिय होते हैं। कभी-कभी मन के न चाहने पर भी अघटित घटित हो जाता है। यदि मन ही सब कुछ होता तो ऐसा कभी नहीं हो सकता। यदि मन का एकछत्र साम्राज्य होता तो उसके विपरीत कुछ भी नहीं हो पाता। पर ऐसा नहीं है। मन का, वाणी का और शरीर का अपना-अपना स्वतंत्र तंत्र है। प्राणशक्तियां दस हैं। उनमें एक है मनःप्राणशक्ति। यह एक किरण है, रश्मि है। जैसे मन की प्राणशक्ति है वैसे ही वाणी की प्राणशक्ति है और शरीर की प्राणशक्ति है। किसी एक को अतिरिक्त मूल्य नहीं दिया जा सकता। भीतर से जो आता है वह सबसे पहले नाड़ी-संस्थान में उतरता है। एक बात और है। मन अकेला कुछ नहीं कर सकता। मन की क्रिया तब होती है जब उसे मस्तिष्क का सहयोग मिलता है। शरीर इसलिए प्रधान है कि बाहर से जो भीतर जाता है, वह भी काया के द्वारा जाता है और भीतर से जो बाहर जाता है, वह भी काया के द्वारा जाता है। यह शरीर भीतर और बाहर जाने का माध्यम है। भीतर दो महासागर हैं-एक है अन्तर्जगत् और दूसरा है बाह्यजगत् । क्या व्यक्तित्व के बदलते रूप १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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