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वह तत्काल बीमारी का उपशमन कर एक बार पीड़ा को कम कर देना चाहता है। जब वेदना शांत हो जाती है, फिर लंबी चिकित्सा कर रोग का समूल नाश कर दिया जाता है।
उपशमन की प्रक्रिया बहुत आवश्यक है।
हम शरीर-प्रेक्षा के द्वारा नाड़ी-संस्थान जो जागृत कर लेते हैं। यह जागरण बहुत महत्त्वपूर्ण है। नाड़ी-संस्थान जितना मजबूत होता है, उतना ही मजबूत वह व्यक्ति होता है। केवल मांस और हड्डियों के मजबूत होने से बहुत नहीं होता। ये तो नाड़ी-संस्थान को आवृत करने वाले साधन हैं। महत्त्वपूर्ण है नाड़ी-संस्थान। ज्ञानवाही और क्रियावाही नाड़ियों का ही सारा कर्तृत्व है। हम शरीर-प्रेक्षा के द्वारा स्नायुओं को इतना जागृत कर लें कि वे हमारे सभी निर्देशों का अवश्य पालन करें और वे भीतर से आने वाले प्रवाह को बाहर न आने दें, प्रकट न होने दें। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है।
भगवान महावीर और बुद्ध के समय में एक प्रश्न चर्चित था कि दंड कितने होते हैं। महावीर का कथन था-'दंड तीन होते हैं। मन का दंड, वाणी का दंड और काया का दंड।' बुद्ध कहते थे-“दंड एक ही है। वह है मन का दंड, मनोदंड। न वाणी का दंड होता है और न काया का दंड होता है। केवल मन का दंड होता है।'
बुद्ध ने ही नहीं अनेक आचार्यों ने कहा-'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। मन ही बन्धन का कारण है और मन ही मुक्ति का कारण है। मन ही बांधता है और मन ही छुड़ाता है। प्रायः लोग भी यही सोचते हैं कि सब कुछ मन ही है। सतही स्तर पर यह बात सही हो सकती है, पर गहरे में जाने की जरूरत है। महावीर ने जो तीन दंडों की व्यवस्था दी, वह बहुत ही वैज्ञानिक व्यवस्था है। केवल मन से कुछ नहीं बनता। काया के दंड का भी अपना महत्त्व है। जब शरीर में फैले हुए नाड़ी-संस्थान में किसी प्रकार का संस्कार बन जाता है, वे सक्रिय हो जाते हैं, तब मन बेचारा बैठा रह जाता है। अभ्यास हो गया शरीर को। वहां शरीर मुख्य हो जाता है। नाड़ी-संस्थान में जो उत्तेजनाएं, जो वासनाएं, जो तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं, फिर न चाहने पर भी वह घटना १२ आभामंडल
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