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होता है जब स्नायु उसका सहयोग करें। हमारा नाड़ी-संस्थान उसका सहयोग करे। अन्यथा वह भीतर ही समाप्त हो जाता है।
शरीर-प्रेक्षा का बहुत बड़ा मूल्य है। इसे आप समझें। शरीर-प्रेक्षा करने वाला साधक शरीर के प्रति जागरूक हो जाता है। जब व्यक्ति शरीर के प्रति सजग हो जाता है, तब वह शरीर के प्रमुख हजार केन्द्रों के प्रति, संवेदन-बिन्दुओं के प्रति जागृत हो जाता है। शरीर में हजारों मर्मस्थल हैं। वह साधक उन मर्मस्थलों के प्रति जागरूक हो जाता है। ये मर्मस्थल शक्तियों के आदान-प्रदान के माध्यम हैं। ये शकिायों को अभिव्यक्ति देते हैं। ये वृत्तियों को प्रकट करते हैं। क्रोध की अभिव्यक्ति का एक निश्चित बिन्दु है शरीर में। क्रोध आएगा तो शरीर में उत्तेजना पैदा होगी, एक लहर दौड़ेगी और ठीक बिन्दु पर पहुंचकर क्रोध संवेदन के रूप में बदल जाएगा और वह शारीरिक रूप ले लेगा। आंखें लाल हो जाएंगी। होंठ फड़कने लगेंगे। आवाज बदल जायेगी। यदि हम शरीर के प्रति जाग जाएं, इन स्नायुओं पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लें। नाड़ी-संस्थान पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लें और उन्हें भीतर के आवेगों के साथ असहयोग करने का निर्देश दे दें तो भीतर में कितनी ही वृत्तियां क्यों न उभरें, वे बाहर नहीं आ पायेंगी। यह उपशमन की प्रक्रिया है।
दो प्रकार की प्रक्रियाएं हैं। एक है उपशमन की प्रक्रिया और दूसरी है क्षय की प्रक्रिया। क्षय की प्रक्रिया से भीतर के संक्लेश समाप्त हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। उपशमन की प्रक्रिया से संक्लेश उपशांत होते हैं, समूल नष्ट नहीं होते। उपशमन की प्रक्रिया भी जरूरी है। जब तक हम उपशमन की प्रक्रिया नहीं सीख लेते, आने वाली उत्तेजनाओं को विफल करना नहीं जान लेते तब तक क्षय करना कठिन हो जाता है। पहले जरूरी होता है कि एक बार बीमारी को शांत किया जाए, पीड़ा को कम किया जाए, फिर लंबे समय तक बीमारी को उन्मूलित करने की क्रिया की जाए तो उसे समूल नष्ट किया जा सकता है। यदि बीमारी विकराल रूप में उभर रही हो, सिर फट रहा हो, उस समय यदि कहा जाए कि तुम लंबी प्रक्रिया करो, तीन महीने तक यह प्रक्रिया करो, तुम्हारी बीमारी समूल नष्ट हो जाएगी। इतना धैर्य कहां होता है!
व्यक्तित्व के बदलते रूप ११
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