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मूल प्रश्न है-चाबियों का मिलना। इतने विशाल महासागर के दो विशाल प्रवाहों को रोकने या बाहर लाने का प्रश्न जटिल है।
श्वास-प्रेक्षा का अर्थ है-श्वास के प्रति जागृति। जो व्यक्ति श्वास के प्रति नहीं जागता, वह व्यक्ति जागृति की चाबी को नहीं घुमा सकता। जिस व्यक्ति ने श्वास के प्रति जागरूकता प्राप्त कर ली, जिसने अपने श्वास को जानना प्रारंभ कर लिया, मन जागरूक बन गया, तब वह हर श्वास को देखता है। किसी भी श्वास को अनजाने नहीं लेता, किन्तु पूर्ण जानकारी में लेता है और छोड़ता है। ऐसे व्यक्ति के हाथ में असंक्लेश के ताले को खोलने की चाबी आ जाती है।
शरीर-प्रेक्षा भी इस प्राप्ति का साधन है। जो व्यक्ति अपने शरीर के प्रति जागरूक नहीं है, जो उस शरीर के प्रति नहीं जागता, जहां से चाबी घुमाई जाती है, वह कभी भी असंक्लेश के ताले को नहीं खोल सकता।
हम इस बात को बहुत गहराई से समझें। यह एक बड़ा रहस्य है। जो भी प्रवाह भीतर से बाहर आता है, वह शरीर के माध्यम से आता है। क्रोध आएगा तो शरीर के माध्यम से, अभिमान और लोभ आएगा तो शरीर के माध्यम से और वासना उभरेगी तो शरीर के माध्यम से। जितने आवेग, उत्तेजनाएं, वासनाएं और कामनाएं हैं-ये सब शरीर के माध्यम से उभरती हैं। नाड़ी संस्थान में दो प्रकार के स्नायु हैं-ज्ञानवाही स्नायु और क्रियावाही स्नायु। जो ज्ञानवाही स्नायु हैं, उनके माध्यम से हम जानते हैं, संवेदन करते हैं। पैर में कांटा चुभा। तत्काल पैर के स्नायु उस उत्तेजना को सिर तक पहुंचा देता है। सिर के स्नायु क्रियावाही स्नायुओं को कांटा निकालने का आदेश देते हैं। तत्काल हाथ की मांसपेशियां सक्रिय हो जाती हैं और अंगुलियां कांटा निकालने लग जाती हैं। सब कुछ स्नायु के द्वारा घटित होता है।
मनुष्य शान्त बैठा है। अचानक उसमें क्रोध उभरा। जब तक क्रोध की तरंग स्नायु पर नहीं दौड़ेगी, मनुष्य का क्रोध अभिव्यक्त नहीं होगा। भीतर में कितना ही प्रबल क्रोध उभरा, किन्तु स्नायु में यदि नहीं उतरा तो वह भीतर ही भीतर रह जाएगा, प्रकट नहीं होगा। क्रोध तभी प्रकट १० आभामंडल
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