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निर्विचारता और सुख की स्थिति ने ही समाधि को जन्म दिया है। मनुष्य ने समाधि की खोज इसीलिए की कि उसे निर्विचारता में सुख की अनुभूति हुई। समाधि निर्विचारता का साधन है। इस तर्क के आधार पर यदि हम चलें तो इसके प्रति दूसरा तर्क यह होता है कि समाधि की खोज एक शिकारी ने की, एक मच्छीमार ने की। जब एक शिकारी निशाना साधता है तब वह अपने लक्ष्य में इतना खो जाता है कि उसे निर्विचारता की स्थिति प्राप्त हो जाती है। उसकी एकाग्रता सध जाती है। उस शिकारी ने समाधि की खोज की। निशाने पर तीर लगने से उसे जो आनन्दाभूति होती है, वह अवर्णनीय है। एक चोर सेंध मारते समय कितना एकाग्र होता है, बगुला मछली को पकड़ने में कितना स्थिर और एकाग्र होता है? हम यह क्यों न मानें कि इन सारे स्रोतों से समाधि की खोज की गई। भगवान महावीर ने इसे ध्यान माना है। एकाग्रता ध्यान है, फिर चाहे वह कैसा भी ध्यान क्यों न हो।
एक व्यक्ति लक्ष्यभेदी था। उसे अपनी कला पर गर्व था। एक दूसरा व्यक्ति मिला। उसने कहा-'मेरे गुरु बिना तीर-धनुष के ही लक्ष्य को बेध डालते हैं। उसके मन में उत्सुकता जगी। दोनों गुरु के पास पहंचे। गुरु उन दोनों को साथ लेकर पहाड़ की चोटी पर चला गया। वह वहां एक ऐसी चट्टान पर खड़ा हुआ जहां नीचे भयंकर गढ़े और दरारें दीख रही थीं। दोनों घबराए। पर गुरु के साथ खड़े हो गए। गुरु ने अपनी आंखें ऊपर उठाईं। पक्षियों का एक झुण्ड उड़ता जा रहा था। ज्यों ही वह झुण्ड आंखों की रेन्ज में आया, तत्काल सारे पक्षी एक-एक कर नीचे आ गिरे। लक्ष्यवेध हो गया। आंखों ने उन पक्षियों को बींध डाला। क्या यह ध्यान नहीं है? यह बहुत बड़ा ध्यान है, बहुत बड़ी एकाग्रता है, बहुत बड़ी समाधि है। किन्तु सब समाधि समाधि नहीं होती आचार्य भिक्षु ने कहा-'गाय का दूध होता है, आक का दूध होता है और थूहर का दूध होता है। दूध दूध है, कोई अन्तर नहीं। किन्तु यदि गाय के दूध के स्थान पर कोई आक का दूध पी ले तो वह व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता।' सब समाधि एक नहीं होती। क्या हम यह मान लें कि मनुष्य ने कभी आक का दूध पीया होगा, इसलिए दूध १६२ आभामंडल
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