SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में शक्ति का व्यय अधिक होता है। स्पर्श, रस, गंध आदि जितने विषय हैं, उनमें शक्ति का बहुत व्यय होता है। उस दिशा में ऊर्जा को प्रवाहित करने का मार्ग सहज लब्ध है। एक प्रश्न सामने आया। क्या संभोग समाधि का आदि बिन्दु है ? यह प्रश्न एक व्यक्ति का नहीं। इस प्रश्न ने अनेक व्यक्तियों को झकझोरा है । हम एक ओर शक्ति की चर्चा करते हैं, शक्ति के विकास की चर्चा करते हैं, किन्तु शक्ति का विकास तब तक संभव नहीं होगा जब तक शक्ति के व्यय को न रोक सकें। एक ओर शक्ति और संचय का प्रयत्न करें और दूसरी ओर से शक्ति का व्यय होता चला जाए तो यह रहट की घड़ियों के जैसा क्रम होगा। जब घड़ियां कुएं के भीतर जाती हैं तब पानी भरता है और जब बाहर आती हैं तब पानी खाली हो जाता है । भरना और खाली होना- इससे बड़ी शक्ति पैदा नहीं होती । नदी निरन्तर बहती रहती है, उससे कोई बड़ी शक्ति पैदा नहीं होती । स्रोत से पानी आता रहता है, आगे चलता रहता है। जब उसके प्रवाह को रोककर पानी बांध दिया जाता है तब उस नियोजित पानी से विद्युत् पैदा होती है और बहुत बड़ी शक्ति पैदा हो जाती है । अतः शक्ति के विकास के लिए यह बहुत जरूरी है कि शक्ति का व्यय रोका जाए। 'संभोग से समाधि' - जब इस प्रकार के दृष्टिकोण सामने आते हैं तब लोगों के मन में एक भ्रान्ति उत्पन्न होती है। कुछ यह मानने भी लग जाते हैं कि समाधि प्राप्त करने का सशक्त साधन है संभोग । इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले व्यक्ति की भावना कुछ और रही हो, गूढ़ रही हो, किन्तु सामान्य व्यक्ति उस गूढ़ता तक कैसे पहुंच सकता है ? तान्त्रिक प्रयोगों के जो रहस्य थे, वे रहस्य केवल उन्हें व्यक्तियों के लिए थे जो बहुत आगे जाकर विशेष प्रकार के प्रयोग करना चाहते थे । इसीलिए बार-बार कहा गया- 'गोप्यम् गोप्यंम्, पुनरपि गोप्यम् ।' 'गोप्यम्' की बात जब ढीली पड़ जाती है, तब वे रहस्य जन-सामान्य के समक्ष आते हैं, तब उन रहस्यों का अर्थ सामान्य आदमी अपनी बुद्धि के अनुसार समझता है और भटक जाता है। तर्क आता है-संभोग की अवस्था में निर्विचारता आती है, सुख का अनुभव होता है। उस आभामण्डल और शक्ति - जागरण ( २ ) १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003062
Book TitleAbhamandal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy