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पैदा हो गए कि कोई शुद्ध नहीं रहा । घटना भी शुद्ध नहीं रही और चेतना भी शुद्ध नहीं रही । न आटा आटा रहा और न नमक नमक । दोनों का मिश्रण हो गया । आज अ - मिश्रण है क्या? लोग बाजार की मिलावट की बात करते हैं, किन्त दृष्टिकोण के मिलावट की बात नहीं करते । कितना आश्चर्य ! बेचारे व्यापारी कितनी मिलावट कर पाते हैं, किन्तु आदमी जागने से लेकर सोने तक मिलावट ही मिलावट करता है । सब कुछ मिलावट । हम मिलावट को छोड़कर पदार्थ को पदार्थ की दृष्टि से देखें। ध्यान के द्वारा आपको जो उपलब्ध होगा, वह विशुद्ध तत्त्व प्राप्त होगा, न पदार्थ समाप्त होगा और न चेतना समाप्त होगी । समाप्त किसी को नहीं करना है। बनाए रखना है। एक बार एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से कहा - 'महाराज ! आप मूर्तियों को समाप्त कर रहे हैं, उठा रहे हैं।' आचार्य भिक्षु ने कहा- 'मैं कौन हूं मूर्तियों को समाप्त करने वाला, मूर्तियों को उठाने वाला । मैं तो मूर्ति को मूर्ति मानता हूं, चेतना को चेतना मानता हूं और जड़ को जड़ मानता हूं और कुछ नहीं करता ।' ध्यान के द्वारा आपको और कुछ नहीं करना है, न पदार्थ को छोड़ना है और न अपने आपको छोड़ना है। केवल इतना ही करना है कि हम पदार्थ को पदार्थ के रूप में जानें और अस्तित्व को अस्तित्व के रूप में जानें । वास्तव में करना कुछ भी नहीं है। सचाई का नाम ही है - नहीं करना । सचाई का नाम ही है कि जो जैसा हो उसे वैसा जानो। अपने अस्तित्व में होना सचाई है । स्वयं होता है। करने वाला कौन है ? करने वाला कोई नहीं है । यह सारा उपचार है । पदार्थ होता है । दूसरा केवल निमित्त बनता है और वह मान लेता है कि मैंने बहुत बड़ा काम कर लिया । हम सब निमित्त हैं । कोई व्यक्ति उपादान नहीं बनता । कोई भी व्यक्ति इतना क्षम नहीं है कि वह उपादान को बदल दे । ईश्वर में भी वह शक्ति नहीं है । न वैज्ञानिक उपादान को बदल सकता है और न ध्यान योगी उपादान को बदल सकता है । यह सारा नाटक निमित्तों का है । हम निमित्तों का अभिनय करते चले जा रहे हैं और उसमें अपने कर्तृत्व को मानते चले जा रहे हैं । हमारा सारा कर्तृत्व निमित्तों का कर्तृत्व है, उपादान का कर्तृत्व नहीं है। यदि कोई
ध्यान क्यों ?
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