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वह पदार्थ तक ही पहुंच पाएगा, आत्मा तक उसकी पहुंच नहीं हो सकती। ये सारे आत्मा तक पहुंचने के साधन ही नहीं हैं। पौद्गलिक साधनों के द्वारा पौद्गलिक सत्ता को ही जाना जा सकता है, आत्मिक सत्ता को नहीं जाना जा सकता। पौद्गलिक सत्ता को जानने के लिए जितने नियम वैज्ञानिकों ने बनाए हैं और जो नियम काम में लिये जा रहे हैं वे पदार्थ की व्याख्या कर सकते हैं, किसी चेतन सत्ता की व्याख्या नहीं कर सकते। चेतन सत्ता उनका विषय भी नहीं बनती। इसीलिए वैज्ञानिक जगत् ने चेतन सत्ता को नकारा है। उस अस्वीकार के कारण आज हमें ध्यान की उपयोगिता बस इतनी ही लगती है कि उससे तनाव कम होता है, शारीरिक स्वास्थ्य बना रहता है, आदि-आदि। बस ध्यान की उपयोगिता समाप्त। किन्तु ध्यान केवल तनाव को कम करने के लिए ही नहीं है। यह सच है कि ध्यान से स्नायविक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव कम होते हैं, स्वास्थ्य सुधरता है, रक्तचाप में अन्तर आता है, किन्तु यदि ध्यान का केवल यही उद्देश्य हो तो ध्यान की यात्रा बहुत छोटी होगी, उसकी उपयोगिता सीमित हो जाएगी। तब ध्यान हमारे लिए शरीर को पुष्ट और स्वस्थ करने वाला एक साधन मात्र होगा। इससे ज्यादा उसको कोई मूल्य नहीं मिलेगा। किन्तु हमने ध्यान का जो उपक्रम प्रारंभ किया है, वह कुछ विशिष्ट उद्देश्य से किया है। उसमें शारीरिक स्वास्थ्य भी एक है। शारीरिक स्वास्थ्य भी कम मूल्यवान् नहीं है किन्तु शरीर से ज्यादा जिसका मूल्य है उसके मूल्य को मैं कम करना नहीं चाहता। सबसे अधिक मूल्यवान् है अपने अस्तित्व का बोध। जब तक अस्तित्व का बोध नहीं होता, तब तक स्वास्थ्य का प्रश्न जटिल ही बना रहेगा। हम इस बात को ही न मानें कि स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल परिस्थिति, मौसम या कीटाणुओं से ही है। स्वास्थ्य का प्रश्न बहुत गहरे में जुड़ा हुआ है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व का बोध नहीं कर लेता तब तक स्वास्थ्य की समस्या को भी नहीं सुलझा सकता। सारी बीमारियां मिथ्या दृष्टिकोणों के कारण आती हैं। जब तक मिथ्यादृष्टि समाप्त नहीं होती तब तक दुःख समाप्त नहीं हो सकते। दुःखों को समाप्त करने का एकमात्र साधन है सत्य की उपलब्धि, अस्तित्व की ११८ आभामंडल
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