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होती है। कर्म में सारे दोष इसीलिए आये हैं कि वे कर्म कर्म में से निकल रहे हैं। प्रवृत्ति में से प्रवृत्तियां निकल रही हैं। जब कर्म में से कर्म और प्रवृत्ति में से प्रवृत्ति निकलती है तो व्यक्ति केवल कर्ममय
और प्रवृत्तिमय बन जाता है। फिर उसके लिए कर्म साध्य बन जाता है, साधन नहीं रहता। कर्म साधन है। वह हमारे जीवन का साध्य नहीं है। प्रवृत्ति हमारी जीवन-यात्रा का साधन है, साध्य नहीं है। किन्तु जब प्रवृत्ति में से प्रवृत्ति निकलती है, कर्म में से कर्म निकलता है तब प्रवृत्ति
और कर्म साध्य बन जाते हैं, साधन नहीं रहते। इतना ही अन्तर है कि ध्यान करने वाला व्यक्ति कर्म और प्रवृत्ति को साधन मानता है। जीवन-यात्रा का और ध्यान नहीं करने वाला व्यक्ति कर्म और प्रवृत्ति को साध्य मानने लग जाता है। जीवन में एक बहुत बड़ी भ्रान्ति आ जाती है।
हम जीवन की सचाई को पाने के लिए अप्रयत्न करते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में पदार्थ पर बहुत खोजें हुई हैं और आज भी खोज चालू है। पदार्थ की प्रकृति को, पदार्थ के अस्तित्व के कण-कण को छाना जा रहा है। सारी खोज पदार्थ पर हो रही है और पदार्थ की खोज के बहुत सारे नियम बन चुके हैं। वैज्ञानिक खोज के बाद एक धारणा बहुत ही स्पष्ट रूप से बन गई कि पदार्थ है, ज्ञेय है, विषय है किन्तु पदार्थ से परे कोई ज्ञेय नहीं है, विषय नहीं है। विषयी और विषय, ज्ञाता और ज्ञेय, पदार्थ और पदार्थातीत सत्ता-ये दो बातें हैं। वैज्ञानिक खोजों के पश्चात् यह धारणा अत्यन्त पुष्ट हो गई कि केवल पदार्थ हैं, परमाणु हैं, परमाणुओं के स्कन्ध हैं, किन्तु उनसे परे कोई स्वतन्त्र चेतना नाम की सत्ता नहीं है। स्वतंत्र ज्ञाता का कोई अस्तित्व नहीं है। आज पदार्थ इतना प्रधान बन गया कि मनुष्य का अस्तित्व उसके सामने विलीन होता जा रहा है। मनुष्य गौण हो गया, पदार्थ मुख्य बन गया। पदार्थ सिंहासन पर बैठ गया और मनुष्य उसके सामने हाथ जोड़े चरणों में बैठ गया। ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि वैज्ञानिक खोज कर रहे हैं उपकरणों के माध्यम से, यन्त्रों के माध्यम से, भौतिक साधनों के माध्यम से। जो व्यक्ति साधनों के माध्यम से खोज करेगा,
ध्यान क्यों? ११७
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