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________________ 75 अहिंसा और शान्ति विरोध परिहार का मार्ग : अनेकान्त अनेकान्त में इस विरोध के परिहार का मार्ग उपलब्ध है। उसका एक सूत्र हैसर्वथा विरोध और सर्वथा अविरोध जैसा दुनिया में कुछ भी नहीं है। सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद जैसा दुनिया में कुछ भी नहीं है। जो भिन्न है वह अभिन्न भी है और जो अभिन्न है, वह भिन्न भी है। जो विरुद्ध है, वह अविरुद्ध भी है और जो अविरुद्ध है, वह विरुद्ध भी है। ऐसी लक्ष्मण-रेखा नहीं खींची जा सकती कि मैं इससे सर्वथा भिन्न हूं या इससे सर्वथा अभिन्न हूं। इस आधार पर अनेकान्त का एक सिद्धान्त फलित हुआ- सह-अस्तित्व। प्राचीन भाषा है- सहानवस्थान। वर्तमान में कहा जा सकता है- एक साथ रहना और एक साथ जीना सह-अस्तित्व है। यह कैसे संभव है? अनेकांत की व्याख्या की जाए तो निष्कर्ष होगासह-अस्तित्व का सिद्धांत अनेकान्त की मूल प्रकृति है। अनेकान्त का पहला बिन्दु है- दो विरोधी युगलों के अस्तित्व का स्वीकार। इस दुनिया में जितने पदार्थ हैं, वे सब विरोधी युगल हैं। यह अनेकान्त की प्रथम स्थापना है। दर्शन शास्त्र में वस्तु को अनन्तधर्मा माना जाता है। जैन दर्शन भी वस्तु को अनंतधर्मात्मक मानता है। दूसरे दर्शन भी उसे अनंतधर्मात्मक मानते हैं । वस्तु को अनंत धर्मात्मक मानना जैन दर्शन की कोई मौलिक विशेषता नहीं है। अनंतधर्मइसका तात्पर्य है अनन्त विरोधी युगलों का स्वीकार। यह जैन दर्शन की अपनी मौलिक विशेषता है। जो अनन्तधर्म हैं, वे सब विरोधी जोड़े हैं, विरोधी युगल हैं। अनेकान्त का निष्कर्ष प्रश्न होता है-जब सारा संसार विरोधी युगलों में समाया हुआ है तो संसार का काम कैसे चलेगा? प्रत्येक पदार्थ नित्य भी है, अनित्य भी है, एक जैसा भी है, भिन्न भी है, भेदात्मक भी है अभेदात्मक भी है तो फिर विश्व की व्यवस्था कैसे चलेगी? अनेकान्त का यह स्पष्ट अभ्युपगम है- जो विरोधी युगल नहीं होता, उसका अस्तित्व ही नहीं होता। जिसका अस्तित्व होगा, वह विरोधी ही होगा, विरोधी युगल ही होगा। अज्ञान के कारण हम इस सचाई तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। बहुत बार मनुष्य अज्ञान में होता है और वह मूल स्थिति को समझ नहीं पाता है। किसान अपने बैलों के लिए चला जा रहा था। रास्ते में पुजारी ने घंटी बजाई। बैल भडक उठे। किसान ने कहा- अरे ! देखता नहीं, मेरे बैल भड़क गए। पुजारी ने कहा- आरती उतार रहा हूं। किसान बोला- अब आरती उतार रहे हो, पहले ऊपर चढ़ाई ही क्यों? अज्ञानता के कारण मनुष्य इस सचाई को पहचान नहीं पाता कि आरती कभी चढ़ाई नहीं जाती, वह उतारी ही जाती है। एक शाश्वत युगल : विरोध और अविरोध हमारे साथ ऐसा ही कुछ हो रहा है। हम सचाई को पकड़ नहीं पा रहे हैं। यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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