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________________ अहिंसा और निःशस्त्रीकरण युद्ध में मरने वाला स्वर्ग में जाता है। इस मान्यता को बहुत व्यापक रूप दिया गया। भगवान् महावीर ने उक्त मान्यता का खंडन किया। उन्होंने युद्ध के मूल कारणों पर विचार किया और उसकी जड़ को सिंचन न मिले वैसी विधियों का निर्देश दिया। शस्त्र का निर्माण मस्तिष्क में युद्ध का मूल है- शस्त्रीकरण । शस्त्र का निर्माण न हो, इस व्रत को गृहस्थ की आचार-संहिता में स्थान दिया। भगवान् ने बताया- शस्त्र का निर्माण मस्तिष्क में होता है। लौह आदि से बनने वाले शस्त्र निर्जीव शस्त्र हैं। पहले सजीव शस्त्र का निर्माण होता है और वह हमारे मस्तिष्क में होता है । फिर निर्जीव शस्त्र का निर्माण होता है। भगवान् ने उस सजीव शस्त्र का निर्माण न करने का मार्गदर्शन दिया। सजीव और निर्जीव- दोनों प्रकार के शस्त्र निर्मित नहीं होते हैं, उस स्थिति में युद्ध-वर्जना की बात सहज ही फलित हो जाती है। हिंसा का बीज प्रत्येक प्राणी में आज के वैज्ञानिक हिंसा के मूल की खोज में लगे हुए हैं। मनोवैज्ञानिक संघर्ष को मौलिक मनोवृत्ति मानते हैं। आनुवंशिकी वैज्ञानिक हिंसा का मूल जीन में खोज रहे हैं किन्तु युद्ध का इनसे सीधा संबंध नहीं है। हिंसा का अस्तित्व प्रत्येक प्राणी में है। पशु और पक्षी भी लड़ते हैं। एक-दूसरे की हत्या करते हैं। किन्तु उसमें युद्ध का विकास नहीं हुआ। युद्ध एक विशिष्ट कला है, एक विशिष्ट व्यवस्था है। पशु-पक्षियों में इतना विकास नहीं है कि वे युद्ध की रचना कर सकें। यह मानव-समाज की विशिष्ट देन है। भगवान् महावीर की दृष्टि से हिंसा के बीज प्रत्येक प्राणी में विद्यमान हैं। उनका संबंध कर्म से है। किन्तु हिंसा युद्ध के रूप में फलित होगी, उसके लिए केवल कर्म का उत्तरदायित्व नहीं है। उसका उत्तरदायित्व अनेक घटकों का है- कर्म, मनुष्य का तंत्रिकातंत्रीय विकास, साम्राज्यवादी मनोवृत्ति, सामाजिक वातावरण आदि-आदि। अहिंसक समाज-रचना का आधार महावीर ने गृहस्थ की अहिंसा का एक स्वरूप निर्धारित किया था। हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया- आरंभजा, विरोधजा और संकल्पजा। आरंभजा हिंसा जीवन-निर्वाह के लिए होने वाली हिंसा है। विरोधजा हिंसा अपनी सुरक्षा के लिए की जाने वाली हिंसा है। संकल्पजा हिंसा आक्रामक मनोवृत्ति से होने वाली हिंसा है। महावीर ने संकल्पजा हिंसा को त्यागने की प्रेरणा दी। उसके मतानुसार यदि अनाक्रमण की वृत्ति का विकास होता है तो अनावश्यक हिंसा की व्यूह-रचना अपने आप टूट जाती है। आक्रमण के बिना विरोधजा हिंसा अथवा सुरक्षा के लिए की जाने वाली हिंसा का प्रसंग ही नहीं आता। यदि आदमी आरंभजा हिंसा के साथ जीता है तो वैसे समाज को हिंसक समाज नहीं कहा जा सकता। हिंसा हिंसा है। आरंभजा हिंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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