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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग धार्मिक स्तर पर अनशन का। मरणात्मक घटना सबमें समान है। क्या स्वरूप की दृष्टि से भी ये सब समान हैं ? इनकी परीक्षा के लिए निकष एक ही होगा। जिस देहत्याग की पृष्ठ भूमि में उद्देश्य की पूर्ति प्रधान है और मरण प्रासंगिक है, मन शान्त, प्रशान्त और समाधिपूर्ण है, कोई आवेग, संवेग, उद्वेग और उत्तेजना नहीं है, वह देहत्याग प्रशस्त है। उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है। साध्य-साधन की शुद्धि
आत्म-दाह को उक्त कसौटी पर कसें। क्या उसके पीछे रागात्मक और द्वेषात्मक संवेग जुड़ा हुआ नहीं है ? सती-प्रथा के पीछे भी क्या रागात्मक आवेश नहीं है ? और यदि नहीं है तो क्या चितादाह की अपेक्षा साधना का सौम्य मार्ग नहीं चुना जा सकता ? राजनीतिक के स्तर पर किए जाने वाले अनशन में क्या आत्म-शोधन की भावना है ? यदि है तो उसके उद्देश्य की शुद्धि का विचार अपेक्षित है। जिसमें उद्देश्य-शुद्धि और साधन-शुद्धि- दोनों हों, उस अनशन को प्रशस्त माना जा सकता है। अहिंसा है मोह-विलय की साधना
बहुत लोग भावुकतावश आत्मदाह अथवा सती-प्रथा जैसी प्रवृत्ति और अनशन को एक तुला से तौलना चाहते हैं। उन्हें एक तराजू से तौला जा सकता है यदि अनशन भी आवेश से प्रेरित हो। जो अनशन समाधि-मरण की पृष्ठभूमि में किया जाता है, उसमें आवेश के लिए कहीं अवकाश नहीं होता। वह नितान्त अभय की साधना है। मनुष्य के मन में सबसे बड़ा भय मृत्यु का होता है। भय एक आवेश है। क्रोध, लोभ और अहंकार का भी आवेश होता है। ये आवेश भय के आवेश को दबा देते हैं तब आदमी आकस्मिक ढंग से जहर आदि खाकर मर सकता है किन्तु वह मृत्यु के भय से मुक्त हो, अभय की साधना नहीं कर सकता। अभय की साधना वही कर सकता है जिसका शरीर के प्रति मोह विलीन हो जाता है। भगवान् महावीर की भाषा में मोह-विलय की साधना ही अहिंसा है।
अभ्यास 1. पारमार्थिक अहिंसा और व्यावहारिक अहिंसा में क्या कोई अन्तर्विरोध है ? यदि नहीं तो दोनों में सामंजस्य किस प्रकार से किया जा सकता है ?
2. अहिंसक व्यक्तित्व के निर्माण में आहार की भूमिका को स्पष्ट करें।
3. अहिंसा की प्रशिक्षण-पद्धति पर प्रकाश डालते हुए बतायें कि क्या हिंसा को सर्वथा मिटाया जा सकता है ?
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