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________________ अहिंसा का व्यावहारिक स्वरूप श्रेणिक- कालसौकरिक के लिए दोनों का निषेध क्यों ? भगवान्- वह हिंसा में लगा हुआ है इसलिए यहां भी अच्छा नहीं है, आगे भी अच्छा नहीं है। इस प्रसंग से जीने और मरने का मूल्य समझा जा सकता है। जीना अच्छा भी है. नहीं भी है. मरना अच्छा भी है, नहीं भी है। जीने और मरने के साथ हिंसा जुड़ी हुई नहीं है। हिंसा जुड़ी हुई है मारने के साथ। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को मारने का संकल्प करता है और मारता है, वह हिंसा है। हर व्यक्ति को जैसे जीने का अधिकार है वैसे ही उसे मरने का अधिकार भी है। जीने की स्वतंत्रता को जैसे नहीं छीना जा सकता, वैसे ही मरने की स्वतंत्रता को भी नहीं छीना जा सकता। यह सिद्धांत बहुत पुराना है। इसकी स्थापना हजारों वर्ष पहले हो चुकी थी। __ भगवान् महावीर ने इस सिद्धांत पर हिंसा और अहिंसा की दृष्टि से अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था। उसके अनुसार असंयत जीवन और बालमरण दोनों अहिंसा की दृष्टि से सम्मत नहीं हैं। संयतजीवन और पंडितमरण- ये दोनों अहिंसा की दृष्टि में सम्मत हैं। बालमरण : अस्वस्थता का चिह्न भगवान् ने बालमरण के अनेक प्रकार बतलाए हैंपहाड़ से लुढ़क कर आत्म-हत्या करना। वृक्ष से गिरकर आत्म-हत्या करना। जल में डूबकर आत्म-हत्या करना। अग्निदाह कर आत्म-हत्या करना। जहर खाकर आत्म-हत्या करना। शस्त्र प्रयोग कर आत्म-हत्या करना। फांसी के फंदे में झूलकर आत्म-हत्या करना। इस प्रकार आवेश-प्रेरित और मूर्छा में ले जाने वाले तरीके से जो भी मरण होता है, वह बालमरण है। वह कभी वांछनीय नहीं है। उसके पीछे भावना समीचीन नहीं होती। आवेग और उत्तेजना की स्थिति में होने वाला मरण न तो म्रियमाण व्यक्ति के लिए शुभ होता है और न ही समाज में स्वस्थ परम्परा का सूत्रपात करता है। निकष एक ही है __ वर्तमान में मरण के क्षेत्र में अनेक प्रश्न उभरे हैं। एक प्रश्न है- आत्मदाह का, दूसरा है सती होने का, तीसरा है राजनीतिक स्तर पर अनशन का और चौथा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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