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________________ अहिंसा का व्यावहारिक स्वरूप 29 . मांस-मंदिरा प्रयोग सीमित दायरे में था, पर आज यह समाज-व्यापी बन गया। सभी क्षत्रिय और योद्धा बन गए। यह सभी में चल पड़ा, इसलिए बहुत हानि हुई है। अहिंसा का महत्वपूर्ण सूत्र अहिंसा के प्रश्न पर विचार केवल धर्म की दृष्टि से नहीं, किन्तु शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से कर रहे हैं। वैज्ञानकि दृष्टिकोण यह है कि किस प्रकार के भोजन से शरीर में क्या-क्या रसायन बनते हैं, एसिड बनते हैं ? कौन-कौन से विष किस-किस प्रकार की वृत्ति पैदा करते हैं ? आदमी थोड़ा-सा श्रम करता है और थक जाता है । यह थकान श्रम करने से नहीं आती, परन्तु शरीर में संचित जहरीले द्रव्यों के कारण आती है। जब यूरिक एसिड का जमाव अधिक होता है, आदमी थोड़े से श्रम में भी थककर चूर हो जाता है। शरीर की रक्त-प्रणालियों में एसिड जम जाता है और वह रक्त के संचार में अवरोध पैदा करता है। इन विष-द्रव्यों को शरीर में जमा न होने देना यह है अहिंसा और आहार का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र । हिंसा पर अंकुश का मार्ग शरीर में विष-द्रव्य बनेंगे, उन्हें रोका नहीं जा सकता। शरीर है तो भोजन करना ही होगा। भोजन में दोनों प्रकार के द्रव्य होते हैं-अम्लांत और क्षारांत । एक अम्ल होता है और एक क्षार होता है। आज अम्लांत भोजन अधिक है और क्षारान्त कम। अम्लता से विष-द्रव्य बढ़ते हैं। उन्हें रोका नहीं जा सकता किन्तु वे संचित न हों, यह सावधानी बरती जाए तो अहिंसा के लिए रास्ता साफ हो जाता है और हिंसा की प्रवृत्तियों पर अंकुश लग जाता है। प्रश्न है-विष द्रव्यों का निष्कासन कैसे किया जाए ? इस प्रश्न के उत्तर में सबसे पहले यह सावधानी बरतनी होगी कि विष-द्रव्य कैसे कम हों, अधिक मात्रा में न बढ़ें। दूसरी बात यह हो कि,जो विष-द्रव्य जमा हो जाते हैं, उनको कैसे निकालें? आहार का एक पहलू-अनाहार इस संदर्भ में आहार के दूसरे पहलू पर विचार करना होगा। वह पहलू हैअनाहार, उपवास। उपवास आहार का ही एक पहलू है। खाना और न खाना-दोनों जुड़े हुए हैं। विष-द्रव्यों के निष्कासन का सबसे अच्छा उपाय है-उपवास। यह धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है और भावात्मक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। ये विष-द्रव्य भावनाओं को विकृत करते हैं। भगवान् महावीर ने कहा'रसापगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं। दित्तं च कामा समभिद्दवंती, दुमं जहा साउफलं व पक्खी॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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