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अनुप्रेक्षाएं
231 व्यवस्था ने जन्म लिया। जो वस्तु जिसके स्वामित्व में हो, वह उसका उपयोग करने का अधिकरी है। दूसरा व्यक्ति उसका उपयोग नहीं कर सकता । क्योंकि व्यक्तिगत अधिकार में होने वाली वस्तु का जो चाहे वह उपयोग नहीं कर सकता।
इस व्यक्तिगत स्वत्व और व्यक्तिगत उपयोग की व्यवस्था को समाज ने मान्यता दी। कुछ लोग इस व्यवस्था का अतिक्रमण भी करते थे । वे दूसरों के अधिकार में होने वाली वस्तु को उठा लेते, अपने अधिकार में ले लेते और उसका उपयोग करते। इस प्रवृत्ति को चोरी की संज्ञा मिली और इसे बहुत ही हेय कार्य समझा गया ।
दूसरे की वस्तु को उठा लेना उसके अधिकार का हनन है। दूसरे की वस्तु को उठाने वाला उसके मन को चोट पहुंचाता है, इसलिए चोरी हिंसा होने के कारण यह धार्मिक दृष्टि द्वारा भी त्याज्य है। अपने अधिकार और अपनी सीमा में रहना, यह धर्म की दिशा में जाने का प्रयत्न है। दूसरे के अधिकार का अपहरण
और उसकी सीमा में जाने का प्रयत्न धर्म की प्रतिकूल दिशा है। इसीलिए हर धर्म के प्रवर्तक ने चोरी का निषेध कर अचौर्य-व्रत की स्थापना की। जैन तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित व्रत-व्यवस्था में अचौर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पांच महाव्रतों में तीसरा महाव्रत अचौर्य है और पांच अणुव्रतों में अचौर्य तीसरा अणुव्रत है।
व्रती मनुष्य दूसरे के स्वत्व का अपहरण नहीं करता, क्योंकि उसमें आत्मौपम्य का भाव प्रखर होता है। वह अपने मन की वृत्तियों की दूसरों की मानसिक वृत्तियों से तुलना करता है। वह जिन प्रवृत्तियों को अपने लिए इष्ट नहीं समझता, अपने अधिकार या स्वत्व का अपहरण स्वयं को प्रिय नहीं है, तब दूसरों को वह कैसे प्रिय हो सकता है? इस आत्म-तुला के आधार पर वह अचौर्य की दिशा में प्रयाण करता है। अप्रामाणिकता का उत्स . जिस दिन मनुष्य में अनधिकृत वस्तु को प्राप्त करने की आकांक्षा उत्पन्न हुई, उसी दिन उसमें अप्रामाणिकता का बीज अंकुरित हो गया। प्रामाणिकता का अर्थ है-अधिकृत का ग्रहण और अनधिकृत का प्रत्याख्यान । आकांक्षाशील मनुष्य इस मर्यादा को स्वीकार नहीं करता, इसलिए वह अप्रामाणिक हो जाता है।
अप्रामाणिकता अपने आप में चोरी है। वह वाणी की भी होती है, चिन्तन और कर्म की भी होती है। संस्कृत साहित्य में प्रामाणिक व्यक्ति को महात्मा और अप्रामाणिक व्यक्ति को दुरात्मा माना गया है। एक कवि ने लिखा है
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् । मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ॥
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