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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग अहिंसा का अणुव्रत हो सकता हैं, किन्तु असत्य जीवन की अनिवार्यता नहीं है अतः उसका अणुव्रत नहीं हो सकता ।
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महाव्रत और अणुव्रत का विभाग केवल अनिवार्यता के आधार पर ही नहीं होता । प्रमाद भी उसके विभाजन का मुख्य हेतु है। हर आदमी के लिए यह संभव नहीं कि वह सतत जागरूक रहे। जो सतत जागरूक नहीं रहता, वह पूर्णत: सत्यवादी भी नहीं हो सकता। जहां प्रमाद आता है, वहां असत्य आ ही जाता है। आदमी मजाक में झूठ बोल लेता है । वह झूठ बोलने के उद्देश्य से झूठ नहीं है, फिर भी झूठ तो है ही ।
असत्य बोलने का दूसरा हेतु अशक्यता है। हर व्यक्ति में एक साथ इतनी क्षमता विकसित नहीं होती कि वह एक ही चरण में असत्य बोलना छोड़ दे । जिनमें इस प्रकार की क्षमता विकसित नहीं होती, वे असत्य - परिहार का क्रमिक अभ्यास करते हैं। पहले अमुक-अमुक प्रकार का असत्य बोलना छोड़ते हैं। फिर उससे सूक्ष्म असत्य बोलना छोड़ते हैं। फिर सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम । इस प्रकार अभ्यास करते-करते वे पूर्णत: सत्यवादी हो जाते हैं । यह क्रमिक अभ्यास की प्रक्रिया ही तो अणुव्रत है । यह प्रमाद से अप्रमाद की ओर जाने का उपक्रम है । यह अशक्यता से शक्यता को विकसित करने का उपक्रम है । वास्तव में यह सत्य का विभाजन नहीं किन्तु उसका क्रमिक विकास और अभ्यास है ।
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सत्य का व्रत लेने वाला सम्पूर्ण सत्य का व्रत ले यही इष्ट है किन्तु जो ऐसा न कर सके वह कम-से-कम संकल्पपूर्वक असत्य बोलना अवश्य छोड़े । फिर धीमे-धीमे प्रमाद और अशक्यता जनित असत्य बोलना भी छोड़े । इस प्रकार असत्य से सत्य की ओर गति सुलभ हो जाती है।
सत्य और ऋजुता दोनों साथ-साथ चलते हैं। ऋजुता का विकास हुए बिना सत्य का विकास नहीं हो सकता। मानसिक ऋजुता संकल्प - मात्र से एक ही क्षण में प्राप्त होने जैसी वस्तु नहीं है। उसकी क्रमिक साधना है और वह दीर्घकालीन है। उसकी साधना ही वास्तव में सत्य की साधना है, इस वस्तु-स्थिति को ध्यान में रखकर ही भगवान् महावीर ने सत्य के अणुव्रत का प्रतिपादन किया था । स्वाध्याय और मनन
( अनुप्रेक्षा के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है ।)
अचौर्य की दिशा
हर वस्तु का अस्तित्व नैसर्गिक है। किन्तु उसका मूल्य उपयोगिता पर निर्भर है। वास्तव में वस्तु का उपयोग ही मूल्य है । समाज रचना के आरम्भकाल में प्रश्न रहा कि वस्तु का उपयोग कौन करे ? इस प्रश्न के उत्तर में स्वामित्व की
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