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अनुप्रेक्षाएं
इन चारों अंगों का समग्रता से अनुशीलन करना ही सत्य का महाव्रत है। असत्य और मायाचार का निकट का संबंध है। जो कुशल मायावी नहीं होता, वह कुशल असत्य भाषी भी नहीं होता । सत्य में कोई छिपाव नहीं होता। असत्य - भाषी को बहुत छिपाना पड़ता है। उसे एक बड़ा-सा मायाजाल बिछाना पड़ता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने असत्य के लिए बार-बार 'मायामृषा' शब्द का प्रयोग किया।
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जिस प्रवृत्ति में माया है, दूसरों को ठगने की मनोवृत्ति है और असत्य है - यथार्थ को उलटने का प्रयत्न है, वहां हिंसा कैसे नहीं होगी ? यह समूचा प्रयत्न हिंसा का प्रयत्न है ? इसलिए असत्य बोलना हिंसा से भिन्न वस्तु नहीं है ।
सत्य का उद्घाटन
यथार्थ घटना को उलटकर कहना जैसे असत्य है, वैसे ही अज्ञात सत्य का निरसन करना भी असत्य है । सत्य एक विशाल समुद्र की भांति हमारे सामने है। हम उसके तट पर खड़े हैं। उसका दृष्ट भाग अदृष्ट भाग की अपेक्षा बहुत ही थोड़ा है । जो दृष्ट है, आंखों के सामने है, उसी को पूर्ण मानकर अदृष्ट या परोक्ष के अस्तित्व को नकारने या निरस्त करने का प्रयत्न क्या असत्य नहीं है ? एकांगी दृष्टिकोण सदा असत्य होता है, फिर चाहे उसके द्वारा किसी वस्तु का समर्थन करें अथवा खण्डन करें।
हमारा ज्ञान सीमित और परोक्ष है । इस स्थिति में अज्ञात का अस्वीकार कर क्या हम सत्य के साथ न्याय कर सकते हैं ? जब कभी जिस किसी व्यक्ति ने अपने अल्प- ज्ञान के आधार पर सत्य का दरवाजा बन्द किया है, उसने अपने आपको असत्य की कारा में बन्दी बनाया है
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सत्य का शोधक बहुत ही विनम्र होता है। उसमें अज्ञात या अनुभूत के प्रति अभिनिवेश नहीं होता। वह सत्य की खिड़की को हमेशा खुला रखता है। क्या आज का कोई व्यक्ति यह दावा कर सकता है कि मैंने सब कुछ जान लिया । यदि कोई जानने वाला हो तो उसकी बात किसे मान्य नहीं होगी ? यदि कोई वैसा व्यक्ति नहीं है तो वह कैसे यह दावा कर सकता है कि मैं सोचता हूं उससे भिन्न जो है वह सारा का सारा झूठ का पुलिन्दा है। बहुत सारे लोग इस भाषा में सोचते हैं। लगता है कि उनका सत्य में रस नहीं है। उनका रस खण्डन और मण्डन से जुड़ा हुआ है। जिस व्यक्ति का रस खण्डनमण्डन से जुड़ जाता है, सत्य उससे दूर भाग जाता है। सत्य की उपलब्धि के लिए बहुत शान्त, बहुत एकाग्र और बहुत ऋजु होना जरूरी है। ऐसा व्यक्ति आग्रह और अभिनिवेश से दूर रहकर सत्य के विशाल द्वार को उद्घाटित कर लेता है ।
सत्य का अणुव्रत
कुछ विचारकों का अभिमत है कि सत्य का अणुव्रत नहीं हो सकता । उसे टुकड़ों में बांटा नहीं जा सकता। हिंसा जीवन की अनिवार्यता है इसलिए
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