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अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग
-जिस व्यक्ति के मन, वचन और कर्म में एकता होती है, सामंजस्य होता है, वह महान् आत्मा है। जिस व्यक्ति के मन, वचन और कर्म में विसंगति या विसंवाद होता है, वह दुरात्मा है।
मन, वाणी और कर्म की संगति प्रामाणिकता है और उनकी विसंगति अप्रामाणिकता है। प्रामाणिकता अचौर्य है और अप्रामाणिकता चोरी है। हमारे तत्त्व-चिंतकों ने कभी-कभी प्रामाणिकता की बहुत कड़ी कसौटी प्रस्तुत की है। उन्होंने लिखा है
यावद् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं हि देहिनाम।
अधिकं योऽमिमन्येत, स स्तेनो दण्डमर्ह ति ॥
जितने से पेट भरे उतना ही मनुष्य के लिए अधिकृत है। उतना ही उसका स्वत्व है। शेष उसका नहीं है, दूसरों का है। जो व्यक्ति उससे अधिक अपने अधिकार में लेना चाहता है, वह चोर है, दण्ड का अधिकारी है।
प्रामाणिकता या अचौर्य की यह परिभाषा बहुत ही अन्तिम कोटि की परिभाषा है। इससे एक तथ्य स्पष्ट होता है कि अधिक संग्रह की दिशा में गतिशील मनुष्य, प्रामाणिक व्यक्ति अधिक संग्रह नहीं कर सकता। प्रामाणिकता का आचरण
. स्वामी विवेकानन्द अमरीका गये। उसने किसी अमरीकन ने पूछा- "महात्मा गांधी की विशेषता क्या है ? क्या वे बहुत बड़े धनपति हैं या सत्ताधीश हैं ?"
विवेकानन्द ने मुस्कराकर कहा- "वे धन और सत्ता दोनों से अकिंचन हैं।" "तो फिर उनकी क्या विशेषता है ?" उस व्यक्ति ने पूछा।
विवेकानन्द ने कहा- महात्मा गांधी में तीन विशेषताएं उन्हें भारतीय धर्म से प्राप्त हुई हैं। वे ये हैं
1.प्रामाणिकता 2. सत्याग्रह
3. सादगी • इन तीनों में पहली विशेषता प्रामाणिकता है। हर व्यक्ति, समाज या देश के चरित्र की ऊंचाई का मानदण्ड प्रामाणिकता से होता है। हिन्दुस्तान अपने अतीत में इस मानदण्ड से बहुत उन्नत रहा। लगभग पच्चीस सौ वर्ष पहले की घटना है- एक साहूकार मकान बनवा रहा था। उसकी नींव खुद रही थी। मजदूरों ने आश्चर्य के साथ देखा कि नींव की खुदाई में कोई चीज चमक रही है। उन्होंने थोड़ी खुदाई और की तथा साफसाफ देखा कि एक बड़े पात्र में स्वर्ण-मुद्राएं भरी पड़ी हैं। वे तत्काल दौड़े और मुख्य चेजारे (गृह-शिल्पी) के पास पहुंचे। स्वर्ण-मुद्रा के पात्र की बात उसे बतलाई। उसने गहस्वामी से कहा और गहस्वामी ने राजा से। मजदर चाहते. तो उस पात्र को हडप लेते
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