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________________ 220 अहिंसा और अणुव्रतः सिद्धान्त और प्रयोग प्रमाणिक हो, सबको ठीक मापती हो, फिर भी तुम न्याय नहीं करती, क्योंकिजो भारी है उसे नीचे ले जाती हो और जो हल्का है उसे ऊपर उठा देती हो। प्रामाणिक पद गही तुला, यह तुम करत अन्याय। अध पद देत गरिष्ठ को, लघु उन्नत पद पाय॥ आत्मतुला भगवान महावीर ने आत्मतुला के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। महावीर ने वनस्पति और मनुष्य की जो समानताएं प्रस्तुत की हैं, उन्हें आज विज्ञान प्रमाणित कर चुका है। महावीर की भाषा में मनुष्य और वनस्पति की समानता का रूप यह हैमनुष्य वनस्पति मनुष्य जन्मता है वनस्पति भी जन्मती है मनुष्य बढ़ता है वनस्पति भी बढ़ती है मनुष्य चैतन्ययुक्त है वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है मनुष्य छिन्न होने पर क्लान्त होता है। वनस्पति भी छिन होने पर क्लान्त होती है मनुष्य आहार करता है वनस्पति भी आहार करती है मनुष्य अनित्य है वनस्पति भी अनित्य है मनुष्य अशाश्वत है वनस्पति भी अशाश्वत है मनुष्य उपचित और अपचित होता है वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है मनुष्य विविध अवस्थाओं को वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है प्राप्त होती है अभय का अवदान महावीर ने कहा-सब जीवों को अपने समान समझो । वनस्पति के संदर्भ में भी उनका यही प्रतिपादन था-'तुम देखो वनस्पति दूसरे जीवों की अपेक्षा तुम्हारे अधिक निकट है। पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु आदि के जीवों को समझना कुछ कठिन है किन्तु वनस्पतिकाय को समझना आसान है। तुम इसे समझो, इस पर मनन करो। मनन कर अभय-दान दो।' _ 'जिससे तुम्हें जीवन मिल रहा है, उसे भी तुम भय दे रहे हो। तुम उसे सताना छोड़ दो। यह सत्य है--तुम्हारी आवश्यकताएं उस पर निर्भर है। तुम खाए बिना नहीं रह सकते किन्तु तुम कम से कम उसे अनावश्यक मत सताओ। मन में यह भावना रखो-- यह हमारा उपकार करने वाला जगत् है। उसके प्रति तुम्हारा जो क्रूर व्यवहार होता है, उसके लिए क्षमा याचना करो। तुम्हें आवश्यकतावश किसी पेड़ की टहनी को काटना पड़ा है, किसी वनस्पति को खाना पड़ा है, तो तुम उसके प्रति मन में क्षमा-याचना करो। तुम्हारे मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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