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________________ 195 अनुप्रेक्षाएं मैत्री का मनोवैज्ञानिक प्रभाव मानवीय संबंधों की दूसरी कठिनाई है--कठोरता। आदमी अपने से छोटे व्यक्ति के साथ मृदु व्यवहार नहीं करता। अपने से बड़े के साथ उसे मृदु व्यवहार करना पड़ता है। अन्यथा उसे स्वयं को कठिनाई भोगनी पड़ती है। छोटे के साथ मृदु व्यवहार करने पर बड़े का बड़प्पन भी कैसे सुरक्षित रह सकता है ? यह धारणा रूढ़ हो गयी है। एक मालिक अपने नौकर के साथ मृदु व्यवहार करने में कठिनाई का अनुभव करता है। किन्तु बराबर के साथी के साथ वह विनम्र और मृदु व्यवहार करने में गौरव अनुभव करता है। भला नौकर के साथ मृदु व्यवहार कैसे किया जाए ? उसको तो दो-चार गालियां ही दी जानी चाहिए। इस धारणा ने सारे व्यवहारों को अव्यवस्थित कर डाला है।आज सर्वत्र यह धारणा ही बन गयी कि छोटे के साथ तो कठोर व्यवहार ही करना चाहिए। एक मिल मैनेजर यदि मजदूरों के साथ मृदु व्यवहार करता है तो भला मिल कैसे चल सकेगी? इस प्रकार की धारणाओं ने सामाजिक सम्पर्कों, सामाजिक संबंधों और मानवीय संबंधों में बहुत बड़ी दरार पैदा कर दी। हम इस बात को भूल गए कि मैत्री और प्रेम पूर्ण भावनाओं के द्वारा, निर्मल और पवित्र भावनाओं के द्वारा आदमी को जितना जगाया जा सकता है, जितना प्रेरित किया जा सकता है, उतना कठोर व्यवहार से नहीं किया जा सकता। आज वैज्ञानिक खोजों के द्वारा नयी सचाइयां सामने आयी हैं कि पवित्र और सद्भावना पूर्ण भावनाओं के द्वारा पौधों को विकसित किया जा सकता है। खेती को बढ़ाया जा सकता है। फूल को और अधिक विकसित किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में पूर्ण चेतनाशील व्यक्ति को निर्मल और सद्भावनापूर्ण चेतना के द्वारा क्या विकसित नहीं किया जा सकता? क्या वह निरा पत्थर है? पत्थर को भी पवित्र भावनाओं से चैतन्य जैसा किया जा सकता है।जब बड़ी चट्टान को उठाना होता है तब पांच-सात आदमी उस चट्टान के प्रति समर्पित होकर, संकल्पशक्ति के सहारे उसे उठा देते हैं। विनम्रता, मृदुता, हर किसी को पिघाल देती है। आप किसी के प्रति सद्भावना करें, प्रेमपूर्ण भावना करें, वह पिघल जाता है। गाय अधिक दूध देने लग जाती है, वृक्ष अधिक फल-फूल देने लग जाते हैं और लताएं अपनी दिशा बदल देती हैं। एक ईसाई महिला ने एक प्रयोग किया। उसने कुछ पौधे लगाए। किन्तु एक लता उन पर छा जाती, उन पौधों को ढंक देती। पौधों को पनपने का मौका ही नहीं मिलता। एक दिन महिला उस लता के पास गयी और विनम्र स्वर में बोली--मुझे दुःख है कि तुझे काटना पड़ेगा। मुझे खेद है तू मुझे क्षमा करना। उस महिला ने पौधे पर छा जाने वाली लता के भाग को काट डाला फिर लता को सुझाव दिया कि तुम अमुक दिशा में बढ़ती जाओ। कुछ दिनों बाद देखा कि उस लता ने अपना मार्ग बदल डाला और दूसरी दिशा में बढ़ना प्रारम्भ कर दिया । जब लता भी विनम्र बात सुन लेती है, पौधा भी सुन लेता है, तब आदमी हमारी भावना क्यों नहीं सुनेगा? हमारी मृदुता को वह न समझे, यह कैसे हो सकता है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003061
Book TitleAhimsa aur Anuvrat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlalmuni, Anand Prakash Tripathi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size12 MB
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